धनिया ने फिर उसका हाथ पकड़ा और धीरे-से बोली - तुम उसका हाथ पकड़ोगे तो वह चिल्लाएगी। 'तो चिल्लाया करे।' 'मुदा इतनी रात गए, अँधेरे सन्नाटे रात में जायगी कहाँ, यह तो सोचो।' 'जाय जहाँ उसके सगे हों। हमारे घर में उसका क्या रखा है?' 'हाँ, लेकिन इतनी रात गए, घर से निकालना उचित नहीं। पाँव भारी है, कहीं डर-डरा जाय, तो और अगत हो। ऐसी दसा में कुछ करते-धरते भी तो नहीं बनता!' 'हमें क्या करना है, मरे या जिए। जहाँ चाहे जाए। क्यों अपने मुँह में कालिख लगाऊँ? मैं तो गोबर को भी निकाल बाहर करूँगा। धनिया ने गंभीर चिंता से कहा - कालिख जो लगनी थी, वह तो अब लग चुकी। वह अब जीते-जी नहीं छूट सकती। गोबर ने नौका डुबा दी। 'गोबर ने नहीं, डुबाई इसी ने। वह तो बच्चा था। इसके पंजे में आ गया।' 'किसी ने डुबाई, अब तो डूब गई।' दोनों द्वार के सामने पहुँच गए। सहसा धनिया ने होरी के गले में हाथ डाल कर कहा - देखो, तुम्हें मेरी सौंह, उस पर हाथ न उठाना। वह तो आप ही रो रही है। भाग की खोटी न होती, तो यह दिन ही क्यों आता? होरी की आँखें आर्द्र हो गईं। धनिया का यह मातृ-स्नेह उस अँधेरे में भी जैसे दीपक के समान उसकी चिंता-जर्जर आकृति को शोभा प्रदान करने लगा। दोनों ही के हृदय में जैसे अतीत-यौवन सचेत हो उठा। होरी को इस वीत-यौवना में भी वही कोमल हृदय बालिका नजर आई, जिसने पच्चीस साल पहले उसके जीवन में प्रवेश किया था। उस आलिंगन में कितना अथाह वात्सल्य था, जो सारे कलंक, सारी बाधाओं और सारी मूलबद्ध परंपराओं को अपने अंदर समेटे लेता था। दोनों ने द्वार पर आ कर किवाड़ों के दराज से अंदर झाँका। दीवट पर तेल की कुप्पी जल रही थी और उसके मद्धम प्रकाश में झुनिया घुटने पर सिर रखे, द्वार की ओर मुँह किए, अंधकार में उस आनंद को खोज रही थी, जो एक क्षण पहले अपने मोहिनी छवि दिखा कर विलीन हो गया था। वह आगत की मारी, व्यंग-बाणों से आहत और जीवन के आघातों से व्यथित किसी वृक्ष की छाँह खोजती फिरती थी, और उसे एक भवन मिल गया था, जिसके आश्रय में वह अपने को सुरक्षित और सुखी समझ रही थी, पर आज वह भवन अपना सारा सुख-विलास लिए अलादीन के राजमहल की भाँति गायब हो गया था और भविष्य एक विकराल दानव के समान उसे निगल जाने को खड़ा था।
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