और क्या, एक आने में उसका गुजर आराम से न होगा? घर-द्वार ले कर क्या करना है? किसी के ओसारे में पड़ा रहेगा। सैकड़ों मंदिर हैं, धरमसाले हैं। और फिर जिसकी वह मजूरी करेगा, क्या वह उसे रहने के लिए जगह न देगा। आटा रुपए का दस सेर आता है। एक आने में ढाई पाव हुआ। एक आने का तो वह आटा ही खा जायगा। लकड़ी, दाल, नमक, साग यह सब कहाँ से आएगा? दोनों जून के लिए सेर भर तो आटा ही चाहिए। ओह! खाने की तो कुछ न पूछो। मुट्ठी-भर चने में भी काम चल सकता है। हलुवा और पूरी खा कर भी काम चल सकता है। जैसी कमाई हो। वह आधा सेर आटा खा कर दिन-भर मजे से काम कर सकता है। इधर-उधर से उपले चुन लिए, लकड़ी का काम चल गया। कभी एक पैसे की दाल ले ली, कभी आलू। आलू भून कर भुरता बना लिया। यहाँ दिन काटना है कि चैन करना है। पत्तल पर आटा गूँधा, उपलों पर बाटियाँ सेंकीं, आलू भून कर भुरता बनाया और मजे से खा कर सो रहे। घर ही पर कौन दोनों जून रोटी मिलती है, एक जून तो चबेना ही मिलता है। वहाँ भी एक जून चबेने पर काटेंगे। उसे शंका हुई, अगर कभी मजूरी न मिली, तो वह क्या करेगा? मगर मजूरी क्यों न मिलेगी? जब वह जी तोड़ कर काम करेगा, तो सौ आदमी उसे बुलाएँगे। काम सबको प्यारा होता है, चाम नहीं प्यारा होता। यहाँ भी तो सूखा पड़ता है, पाला गिरता है, ऊख में दीमक लगते हैं, जौ में गेरूई लगती है, सरसों में लाही लग जाती है। उसे रात को कोई काम मिल जायगा तो उसे भी न छोड़ेगा। दिन-भर मजूरी की, रात कहीं चौकीदारी करलेगा। दो आने भी रात के काम में मिल जायँ, तो चाँदी है। जब वह लौटेगा, तो सबके लिए साड़ियाँ लाएगा। झुनिया के लिए हाथ का कंगन जरूर बनवायगा और दादा के लिए एक मुंड़ासा लाएगा। इन्हीं मनमोदकों का स्वाद लेता हुआ वह सो गया, लेकिन ठंड में नींद कहाँ! किसी तरह रात काटी और तड़के उठ कर लखनऊ की सड़क पकड़ ली। बीस कोस ही तो है। साँझ तक पहुँच जायगा। गाँव का कौन आदमी वहाँ आता-जाता है और वह अपना ठिकाना ही क्यों लिखेगा, नहीं दादा दूसरे ही दिन सिर पर सवार हो जाएँगे। उसे कुछ पछतावा था, तो यही कि झुनिया से क्यों न साफ-साफ कह दिया - अभी तू घर जा, मैं थोड़े दिनों में कुछ कमा कर लौटूँगा, लेकिन तब वह घर जाती ही क्यों? कहती - मैं भी तुम्हारे साथ लौटूँगी। उसे वह कहाँ-कहाँ बाँधे फिरता? दिन चढ़ने लगा। रात को कुछ न खाया था। भूख मालूम होने लगी। पाँव लड़खड़ाने लगे। कहीं बैठ कर दम लेने की इच्छा होती थी। बिना कुछ पेट में डाले, वह अब नहीं चल सकता, लेकिन पास एक पैसा भी नहीं है। सड़क के किनारे झड़बेरियों के झाड़ थे। उसने थोड़े से बेर तोड़ लिए और उदर को बहलाता हुआ चला। एक गाँव में गुड़ पकने की सुगंध आई। अब मन न माना। कोल्हाड़ में जा कर लोटा-डोर माँगा और पानी भर कर चुल्लू से पीने बैठा कि एक किसान ने कहा - अरे भाई, क्या निराला ही पानी पियोगे? थोड़ा-सा मीठा खा लो। अबकी और चला लें कोल्हू और बना लें खाँड़। अगले साल तक मिल तैयार हो जायगी, सारी ऊख खड़ी बिक जायगी। गुड़ और खाँड़ के भाव चीनी मिलेगी, तो हमारा गुड़ कौन लेगा? उसने एक कटोरे में गुड़ की कई पिंडियाँ ला कर दीं। गोबर ने गुड़ खाया, पानी पिया। तमाखू तो पीते होगे? गोबर ने बहाना किया - अभी चिलम नहीं पीता। बुड्ढे ने प्रसन्न हो कर कहा - बड़ा अच्छा करते हो भैया! बुरा रोग है। एक बेर पकड़ ले, तो जिंदगी-भर नहीं छोड़ता।
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