इंजन को कोयला-पानी भी मिल गया। चाल तेज हुई। जाड़े के दिन, न जाने कब दोपहर हो गया। एक जगह देखा, एक युवती एक वृक्ष के नीचे पति से सत्याग्रह किए बैठी थी। पति सामने खड़ा उसे मना रहा था। दो-चार राहगीर तमाशा देखने खड़े हो गए थे। गोबर भी खड़ा हो गया। मानलीला से रोचक और कौन जीवन-नाटक होगा। युवती ने पति की ओर घूर कर कहा - मैं न जाऊँगी, न जाऊँगी, न जाऊँगी। पुरुष ने जैसे अल्टिमेटम दिया - न जाएगी? 'न जाऊँगी।' 'न जाएगी?' 'न जाऊँगी।' पुरुष ने उसके केश पकड़ कर घसीटना शुरू किया। युवती भूमि पर लोट गई। पुरुष ने हार कर कहा - मैं फिर कहता हूँ, उठ कर चल। स्त्री ने उसी दृढ़ता से कहा - मैं तेरे घर सात जलम न जाऊँगी, बोटी-बोटी काट डाल। 'मैं तेरा गला काट लूँगा!' 'तो फाँसी पाओगे।' पुरुष ने उसके केश छोड़ दिए और सिर पर हाथ रख कर बैठ गया। पुरुषत्व अपने चरम सीमा तक पहुँच गया। उसके आगे अब उसका कोई बस नहीं है। एक क्षण में वह फिर खड़ा हुआ और परास्त हो कर बोला - आखिर तू क्या चाहती है? युवती भी उठ बैठी और निश्चल भाव से बोली - मैं यही चाहती हूँ, तू मुझे छोड़ दे। 'कुछ मुँह से कहेगी, क्या बात हुई?' 'मेरे माई-बाप को कोई क्यों गाली दे?' 'किसने गाली दी, तेरे माई-बाप को?' 'जा कर अपने घर में पूछ।' 'चलेगी तभी तो पूछूँगा?' 'तू क्या पूछेगा? कुछ दम भी है। जा कर अम्माँ के आँचल में मुँह ढाँक कर सो। वह तेरी माँ होगी। मेरी कोई नहीं है। तू उसकी गालियाँ सुन। मैं क्यों सुनूँ? एक रोटी खाती हूँ, तो चार रोटी का काम करती हूँ। क्यों किसी की धौंस सहूँ? मैं तेरा एक पीतल का छल्ला भी तो नहीं जानती!' राहगीरों को इस कलह में अभिनय का आनंद आ रहा था, मगर उसके जल्द समाप्त होने की कोई आशा न थी। मंजिल खोटी होती थी। एक-एक करके लोग खिसकने लगे। गोबर को पुरुष की निर्दयता बुरी लग रही थी। भीड़ के सामने तो कुछ न कह सकता था। मैदान खाली हुआ तो बोला - भाई, मर्द और औरत के बीच में बोलना तो न चाहिए, मगर इतनी बेदरदी भी अच्छी नहीं होती। पुरुष ने कौड़ी की-सी आँखें निकाल कर कहा - तुम कौन हो? गोबर ने नि:शंक भाव से कहा - मैं कोई हूँ, लेकिन अनुचित बात देख कर सभी को बुरा लगता है। पुरुष ने सिर हिला कर कहा - मालूम होता है, अभी मेहरिया नहीं आई, तभी इतना दरद है! 'मेहरिया आएगी, तो भी उसके झोटे पकड़ कर न खींचूँगा।' 'अच्छा, तो अपने राह लो। मेरी औरत है, मैं उसे मारूँगा, काटूँगा। तुम कौन होते हो बोलने वाले। चले जाओ सीधे से, यहाँ मत खड़े हो।' गोबर का गर्म खून और गर्म हो गया। वह क्यों चला जाय? सड़क सरकार की है। किसी के बाप की नहीं है। वह जब तक चाहे, वहाँ खड़ा रह सकता है। वहाँ से उसे हटाने का किसी को अधिकार नहीं है। पुरुष ने होंठ चबा कर कहा - तो तुम न जाओगे? आऊँ? गोबर ने अँगोछा कमर में बाँध लिया और समर के लिए तैयार हो कर बोला- तुम आओ या न आओ। मैं तो तभी जाऊँगा, जब मेरी इच्छा होगी। 'तो मालूम होता है, हाथ-पैर तुड़ा के जाओगे?' 'यह कौन जानता है, किसके हाथ-पाँव टूटेंगे।' 'तो तुम न जाओगे?' 'ना।'
|