मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-12

पेज-119

पुरुष मुट्ठी बाँध कर गोबर की ओर झपटा। उसी क्षण युवती ने उसकी धोती पकड़ ली और उसे अपनी ओर खींचती हुई गोबर से बोली - तुम क्यों लड़ाई करने पर उतारू हो रहे हो जी, अपने राह क्यों नहीं जाते? यहाँ कोई तमासा है? हमारा आपस का झगड़ा है। कभी वह मुझे मारता है, कभी मैं उसे डाँटती हूँ। तुमसे मतलब?

गोबर यह धिक्कार पा कर चलता बना। दिल में कहा - यह औरत मार खाने ही लायक है।

गोबर आगे निकल गया, तो युवती ने पति को डाँटा - तुम सबसे लड़ने क्यों लगते हो? उसने कौन-सी बुरी बात कही थी कि तुम्हें चोट लग गई। बुरा काम करोगे, तो दुनिया बुरा कहेगी ही, मगर है किसी भले घर का और अपने बिरादरी का ही जान पड़ता है। क्यों उसे अपने बहन के लिए नहीं ठीक कर लेते?

पति ने संदेह के स्वर में कहा - क्या अब तक कुँआरा बैठा होगा?

'तो पूछ ही क्यों न लो?'

पुरुष ने दस कदम दौड़ कर गोबर को आवाज दी और हाथ से ठहर जाने का इशारा किया। गोबर ने समझा, शायद फिर इसके सिर भूत सवार हुआ, तभी ललकार रहा है। मार खाए बगैर न मानेगा। अपने गाँव में कुत्ता भी शेर हो जाता है, लेकिन आने दो।

लेकिन उसके मुख पर समर की ललकार न थी, मैत्री का निमंत्रण था। उसने गाँव और नाम और जात पूछी। गोबर ने ठीक-ठीक बता दिया। उस पुरुष का नाम कोदई था।

कोदई ने मुस्करा कर कहा - हम दोनों में लड़ाई होते-होते बची। तुम चले आए, तो मैंने सोचा, तुमने ठीक ही कहा - मैं हक-नाहक तुमसे तन बैठा। कुछ खेती-बारी घर में होती है न?

गोबर ने बताया - उसके मौरूसी पाँच बीघे खेत हैं और एक हल की खेती होती है।

'मैंने तुम्हें जो भला-बुरा कहा है, उसकी माफी दे दो भाई! क्रोध में आदमी अंधा हो जाता है। औरत गुन-सहूर में लच्छमी है, मुदा कभी-कभी न जाने कौन-सा भूत इस पर सवार हो जाता है। अब तुम्हीं बताओ, माता पर मेरा क्या बस है? जनम तो उन्हीं ने दिया है, पाला-पोसा तो उन्होंने है। जब कोई बात होगी, तो मैं जो कुछ कहूँगा, लुगाई ही से कहूँगा। उस पर अपना बस है। तुम्हीं सोचो, मैं कुपद तो नहीं कह रहा हूँ? हाँ, मुझे उसके बाल पकड़ कर घसीटना न था, लेकिन औरत जात बिना कुछ ताड़ना दिए काबू में भी तो नहीं रहती। चाहती है, माँ से अलग हो जाऊँ। तुम्हीं सोचो, कैसे अलग हो जाऊँ और किससे अलग हो जाऊँ! अपनी माँ से? जिसने जनम दिया? यह मुझसे न होगा। औरत रहे या जाए।'

 

 

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