मजदूरों के लिए पहले से नारंगियाँ मँगा ली गई थीं। उन्हें एक-एक नारंगी दे कर विदा किया गया। शामियाने में मेहमानों के चाय-पानी का आयोजन था। मेहता और मिर्जा एक ही मेज पर आमने-सामने बैठे। मालती मेहता के बगल में बैठी। मेहता ने कहा - मुझे आज एक नया अनुभव हुआ। महिला की सहानुभूति हार को जीत बना सकती है। मिर्जा ने मालती की ओर देखा - अच्छा! यह बात थी। जभी तो मुझे हैरत हो रही थी कि आप एकाएक कैसे ऊपर आ गए। मालती शर्म से लाल हुई जाती थी। बोली - आप बड़े बेमुरौवत आदमी हैं मिर्जा जी! मुझे आज मालूम हुआ। 'कुसूर इनका था। यह क्यों 'चीं' नहीं बोलते थे?' 'मैं तो 'चीं' न बोलता, चाहे आप मेरी जान ही ले लेते।' कुछ देर मित्रों में गपशप होती रही। फिर धन्यवाद के और मुबारकवाद के भाषण हुए और मेहमान लोग विदा हुए। मालती को भी एक विजिट करनी थी। वह भी चली गई। केवल मेहता और मिर्जा रह गए। उन्हें अभी स्नान करना था। मिट्टी में सने हुए थे। कपड़े कैसे पहनते? गोबर पानी खींच लाया और दोनों दोस्त नहाने लगे। मिर्जा ने पूछा - शादी कब तक होगी? मेहता ने अचंभे में आ कर पूछा - किसकी? 'आपकी।' 'मेरी शादी। किसके साथ हो रही है?' 'वाह! आप तो ऐसा उड़ रहे हैं, गोया यह भी छिपाने की बात है।' 'नहीं-नहीं, मैं सच कहता हूँ, मुझे बिलकुल खबर नहीं है। क्या मेरी शादी होने जा रही है?' 'और आप क्या समझते हैं, मिस मालती आपकी कंपेनियन बन कर रहेंगी?'
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