भोला ने अपील-भरी आँखों से होरी को देखा - सुनते हो होरी इसकी बातें! अब मेरा दोस नहीं। मैं बिना बैल लिए न जाऊँगा। होरी ने दृढ़ता से कहा - ले जाओ। 'फिर रोना मत कि मेरे बैल खोल ले गए!' 'नहीं रोऊँगा।' भोला बैलों की पगहिया खोल ही रहा था कि झुनिया चकतियोंदार साड़ी पहने, बच्चे को गोद में लिए, बाहर निकल आई और कंपित स्वर में बोली - काका, लो मैं इस घर से निकल जाती हूँ और जैसी तुम्हारी मनोकामना है, उसी तरह भीख माँग कर अपना और अपने बच्चे का पेट पालूँगी, और जब भीख भी न मिलेगी, तो कहीं डूब मरूँगी। भोला खिसिया कर बोला - दूर हो मेरे सामने से। भगवान न करे, मुझे फिर तेरा मुँह देखना पड़े। कुलच्छिनी, कुल-कलंकनी कहीं की! अब तेरे लिए डूब मरना ही उचित है। झुनिया ने उसकी ओर ताका भी नहीं। उसमें वह क्रोध था, जो अपने को खा जाना चाहता है, जिसमें हिंसा नहीं, आत्मसमर्पण है। धरती इस वक्त मुँह खोल कर उसे निगल लेती, तो वह कितना धन्य मानती। उसने आगे कदम उठाया। लेकिन वह दो कदम भी न गई थी कि धनिया ने दौड़ कर उसे पकड़ लिया और हिंसा-भरे स्नेह से बोली - तू कहाँ जाती है बहू, चल घर में। यह तेरा घर है, हमारे जीते भी और हमारे मरने के पीछे भी। डूब मरे वह, जिसे अपने संतान से बैर हो। इस भले आदमी को मुँह से ऐसी बात कहते लाज नहीं आती। मुझ पर धौंस जमाता है नीच! ले जा, बैलों का रकत पी.... झुनिया रोती हुई बोली - अम्माँ, जब अपना बाप हो के मुझे धिक्कार रहा है, तो मुझे डूब ही मरने दो। मुझ अभागिनी के कारन तो तुम्हें दु:ख ही मिला। जब से आई, तुम्हारा घर मिट्टी में मिल गया। तुमने इतने दिन मुझे जिस परेम से रखा, माँ भी न रखती। भगवान मुझे फिर जनम दें, तो तुम्हारी कोख से दें, यही मेरी अभिलाखा है। धनिया उसको अपनी ओर खींचती हुई बोली - यह तेरा बाप नहीं है, तेरा बैरी है, हत्यारा। माँ होती, तो अलबत्ते उसे कलंक होता। ला सगाई। मेहरिया जूतों से न पीटे, तो कहना! झुनिया सास के पीछे-पीछे घर में चली गई। उधर भोला ने जा कर दोनों बैलों को खूँटों से खोला और हाँकता हुआ घर चला, जैसे किसी नेवते में जा कर पूरियों के बदले जूते पड़े हों? अब करो खेती और बजाओ बंसी। मेरा अपमान करना चाहते हैं सब, न जाने कब का बैर निकाल रहे हैं। नहीं, ऐसी लड़की को कौन भला आदमी अपने घर में रखेगा? सब-के-सब बेसरम हो गए हैं। लौंडे का कहीं ब्याह न होता था इसी से। और इस राँड़ झुनिया की ढिठाई देखो कि आ कर मेरे सामने खड़ी हो गई। दूसरी लड़की होती, तो मुँह न दिखाती। आँखों का पानी मर गया है। सबके सब दुष्ट और मूरख भी हैं। समझते हैं, झुनिया अब हमारी हो गई। यह नहीं समझते, जो अपने बाप के घर न रही, वह किसी के घर नहीं रहेगी। समय खराब है, नहीं बीच बाजार में इस चुड़ैल धनिया के झोंटे पकड़ कर घसीटता। मुझे कितनी गालियाँ देती थी। फिर उसने दोनों बैलों को देखा, कितने तैयार हैं। अच्छी जोड़ी है। जहाँ चाहूँ, सौ रुपए में बेच सकता हूँ। मेरे अस्सी रुपए खरे हो जाएँगे।
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