सहसा उसकी आँखों में निविड़ अंधकार छा गया। मालूम हुआ, वह जमीन में धँसा जा रहा है। उसने सँभलने की चेष्टा में शून्य में हाथ फैला दिए और अचेत हो गया। गँड़ासा हाथ से छूट गया और वह औंधे मुँह जमीन पर पड़ गया। उसी वक्त धनिया ऊख का गट्ठा लिए आई। देखा तो कई आदमी होरी को घेरे खड़े हैं। एक हलवाहा दातादीन से कह रहा था - मालिक, तुम्हें ऐसी बात न कहनी चाहिए, जो आदमी को लग जाय। पानी मरते ही मरते तो मरेगा। धनिया ऊख का गट्ठा पटक पागलों की तरह दौड़ी हुई होरी के पास गई, और उसका सिर अपने जाँघ पर रख कर विलाप करने लगी - तुम मुझे छोड़ कर कहाँ जाते हो? अरी सोना, दौड़ कर पानी ला और जा कर सोभा से कह दे, दादा बेहाल हैं। हाय भगवान! अब किसकी हो कर रहूँगी, कौन मुझे धनिया कह कर पुकारेगा।........ लाला पटेश्वरी भागे हुए आए और स्नेह-भरी कठोरता से बोले - क्या करती है धनिया, होस सँभाल। होरी को कुछ नहीं हुआ। गरमी से अचेत हो गए हैं। अभी होस आया जाता है। दिल इतना कच्चा कर लेगी तो कैसे काम चलेगा? धनिया ने पटेश्वरी के पाँव पकड़ लिए और रोती हुई बोली - क्या करूँ लाला जी, जी नहीं मानता। भगवान ने सब कुछ हर लिया। मैं सबर कर गई। अब सबर नहीं होता। हाय रे, मेरा हीरा! सोना पानी लाई। पटेश्वरी ने होरी के मुँह पर पानी के छींटे दिए। कई आदमी अपने-अपने अँगोछियों से हवा कर रहे थे। होरी की देह ठंडी पड़ गई थी। पटेश्वरी को भी चिंता हुई, पर धनिया को वह बराबर साहस देते जाते थे। धनिया अधीर हो कर बोली - ऐसा कभी नहीं हुआ था। लाला, कभी नहीं। पटेश्वरी ने पूछा - रात कुछ खाया था?
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