धनिया बोली - हाँ, रात रोटियाँ पकाई थीं, लेकिन आजकल हमारे ऊपर जो बीत रही है, वह क्या तुमसे छिपा है? महीनों से भरपेट रोटी नसीब नहीं हुई। कितना समझाती हूँ, जान रख कर काम करो, लेकिन आराम तो हमारे भाग्य में लिखा ही नहीं। सहसा होरी ने आँखें खोल दीं और उड़ती हुई नजरों से इधर-उधर ताका। धनिया जैसे जी उठी। विह्वल हो कर उसके गले से लिपट कर बोली - अब कैसा जी है तुम्हारा? मेरे तो परान नहों में समा गए थे। होरी ने कातर स्वर में कहा - अच्छा हूँ। न जाने कैसा जी हो गया था। धनिया ने स्नेह में डूबी भर्त्सना से कहा - देह में दम तो है नहीं, काम करते हो जान दे कर। लड़कों का भाग था, नहीं तुम तो ले ही डूबे थे! पटेश्वरी ने हँस कर कहा - धनिया तो रो-पीट रही थी। होरी ने आतुरता से पूछा - सचमुच तू रोती थी धनिया? धनिया ने पटेश्वरी को पीछे ढकेल कर कहा - इन्हें बकने दो तुम। पूछो, यह क्यों कागद छोड़ कर घर से दौड़े आए थे? पटेश्वरी ने चिढ़ाया - तुम्हें हीरा-हीरा कह कर रोती थी। अब लाज के मारे मुकरती है। छाती पीट रही थी। होरी ने धनिया को सजल नेत्रों से देखा - पगली है और क्या! अब न जाने कौन-सा सुख देखने के लिए मुझे जिलाए रखना चाहती है।
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