दो आदमी होरी को टिका कर घर लाए और चारपाई पर लिटा दिया। दातादीन तो कुढ़ रहे थे कि बोआई में देर हुई जाती है, पर मातादीन इतना निर्दयी न था। दौड़ कर घर से गर्म दूध लाया, और एक शीशी में गुलाबजल भी लेता आया। और दूध पी कर होरी में जैसे जान आ गई। उसी वक्त गोबर एक मजदूर के सिर पर अपना सामान लादे आता दिखाई दिया। गाँव के कुत्ते पहले तो भूँकते हुए उसकी तरफ दौड़े। फिर दुम हिलाने लगे। रूपा ने कहा - भैया आए, भैया आए', और तालियाँ बजाती हुई दौड़ी। सोना भी दो-तीन कदम आगे बढ़ी, पर अपने उछाह को भीतर ही दबा गई। एक साल में उसका यौवन कुछ और संकोचशील हो गया था। झुनिया भी घूँघट निकाले द्वार पर खड़ी हो गई। गोबर ने माँ-बाप के चरण छुए और रूपा को गोद में उठा कर प्यार किया। धनिया ने उसे आशीर्वाद दिया और उसका सिर अपने छाती से लगा कर मानो अपने मातृत्व का पुरस्कार पा गई। उसका हृदय गर्व से उमड़ा पड़ता था। आज तो वह रानी है। इस फटे-हाल में भी रानी है। कोई उसकी आँखें देखे, उसका मुख देखे, उसका हृदय देखे, उसकी चाल देखे। रानी भी लजा जायगी। गोबर कितना बड़ा हो गया है और पहन-ओढ़ कर कैसा भलामानस लगता है। धनिया के मन में कभी अमंगल की शंका न हुई थी। उसका मन कहता था, गोबर कुशल से है और प्रसन्न है। आज उसे आँखों देख कर मानो उसको जीवन के धूल-धक्कड़ में गुम हुआ रत्न मिल गया है, मगर होरी ने मुँह फेर लिया था। गोबर ने पूछा - दादा को क्या हुआ है, अम्माँ? धनिया घर का हाल कह कर उसे दु:खी न करना चाहती थी। बोली - कुछ नहीं है बेटा, जरा सिर में दर्द है। चलो, कपड़े उतारो, हाथ-मुँह धोओ। कहाँ थे तुम इतने दिन? भला, इस तरह कोई घर से भागता है? और कभी एक चिट्ठी तक न भेजी? आज साल-भर के बाद जाके सुधि ली है। तुम्हारी राह देखते-देखते आँखें फूट गईं। यही आसा बँधी रहती थी कि कब वह दिन आएगा और कब तुम्हें देखूँगी। कोई कहता था, मिरच भाग गया, कोई डमरा टापू बताता था। सुन-सुन कर जान सूखी जाती थी। कहाँ रहे इतने दिन?
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