मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-20

पेज-198

गोबर ने सफाई दी - झुनिया, मैं भगवान को साच्छी दे कर कहता हूँ, जो मैंने कभी किसी की ओर ताका भी हो। लाज और डर के मारे घर से भागा जरूर, मगर तेरी याद एक छन के लिए भी मन से न उतरती थी। अब तो मैंने तय कर लिया है कि तुझे भी लेता जाऊँगा, इसीलिए आया हूँ। तेरे घर वाले तो बहुत बिगड़े होंगे?

'दादा तो मेरी जान लेने पर ही उतारू थे।'

'सच!'

'तीनों जने यहाँ चढ़ आए थे। अम्माँ ने ऐसा डाँटा कि मुँह ले कर रह गए। हाँ, हमारे दोनों बैल खोल ले गए।'

'इतनी बड़ी जबर्दस्ती। और दादा कुछ बोले नहीं?'

दादा अकेले किस-किससे लड़ते। गाँव वाले तो नहीं ले जाने देते थे, लेकिन दादा ही भलमनसी में आ गए, तो और लोग क्या करते?'

'तो आजकल खेती-बारी कैसे हो रही है?'

'खेती-बारी सब टूट गई। थोड़ी-सी पंडित महाराज के साझे में है। ऊख बोई ही नहीं गई।'

गोबर की कमर में इस समय दो सौ रुपए थे। उसकी गरमी यों भी कम न थी। यह हाल सुन कर तो उसके बदन में आग ही लग गई।

बोला - तो फिर पहले मैं उन्हीं से जा कर समझता हूँ। उनकी यह मजाल कि मेरे द्वार पर से बैल खोल ले जायँ। यह डाका है, खुला हुआ डाका। तीन-तीन साल को चले जाएँगे तीनों। यों न देंगे, तो अदालत से लूँगा। सारा घमंड तोड़ दूँगा।

 

 

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