'दूध ले कर गए हैं। मुझे कोई बाजार नहीं जाने देता। कहते हैं, तुम तो गाँजा पी जाते हो। मैं अब बहुत कम पीता हूँ भैया, लेकिन दो पैसे रोज तो चाहिए ही। तुम कामता से कुछ न कहना। मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।' 'हाँ-हाँ बेखटके चलो। होली के बाद।' 'तो पक्की रही।' दोनों आदमी बातें करते भोला के द्वार पर आ पहुँचे। भोला बैठे सुतली कात रहे थे। गोबर ने लपक कर उनके चरण छुए और इस वक्त उसका गला सचमुच भर आया। बोला - काका, मुझसे जो कुछ भूल-चूक हुई, उसे छमा करो। भोला ने सुतली कातना बंद कर दिया और पथरीले स्वर में बोला - काम तो तुमने ऐसा ही किया था गोबर, कि तुम्हारा सिर काट लूँ तो भी पाप न लगे, लेकिन अपने द्वार पर आए हो, अब क्या कहूँ। जाओ, जैसा मेरे साथ किया, उसकी सजा भगवान देंगे। कब आए? गोबर ने खूब नमक-मिर्च लगा कर अपने भाग्योदय का वृत्तांत कहा - और जंगी को अपने साथ ले जाने की अनुमति माँगी। भोला को जैसे बेमाँगे वरदान मिल गया। जंगी घर पर एक-न-एक उपद्रव करता रहता था। बाहर चला जायगा, तो चार पैसे पैदा तो करेगा। न किसी को कुछ दे, अपना बोझ तो उठा लेगा। गोबर ने कहा - नहीं काका, भगवान ने चाहा और इनसे रहते बना तो साल-दो-साल में आदमी बन जाएँगे। 'हाँ, जब इनसे रहते बने।' 'सिर पर आ पड़ती है, तो आदमी आप सँभल जाता है।' 'तो कब तक जाने का विचार है?' 'होली करके चला जाऊँगा। यहाँ खेती-बारी का सिलसिला फिर जमा दूँ, तो निश्चिंत हो जाऊँ।' 'होरी से कहो, अब बैठ के राम-राम करें।' 'कहता तो हूँ, लेकिन जब उनसे बैठा जाए।' 'वहाँ किसी बैद से तो तुम्हारी जान-पहचान होगी। खाँसी बहुत दिक कर रही है। हो सके तो कोई दवाई भेज देना।' 'एक नामी बैद तो मेरे पड़ोस ही में रहते हैं। उनसे हाल कहके दवा बनवा कर भेज दूँगा। खाँसी रात को जोर करती है कि दिन को?' 'नहीं बेटा, रात को। आँख नहीं लगती। नहीं वहाँ कोई डौल हो, तो मैं भी वहीं चल कर रहूँ। यहाँ तो कुछ परता नहीं पड़ता।' रोजगार का जो मजा तो वहाँ है काका, यहाँ क्या होगा? यहाँ रुपए का दस सेर दूध भी कोई नहीं पूछता। हलवाइयों के गले लगाना पड़ता है। वहाँ पाँच-छ: सेर के भाव से चाहो तो घड़ी में मनों दूध बेच लो।'
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