कलेवे की टोकरी सिर से उतार कर बोली - पंद्रह रुपए में हमारे बाँस न जाएँगे। चौधरी औरत जात से इस विषय में बातचीत करना नीति-विरुद्ध समझते थे। बोले - जा कर अपने आदमी को भेज दो। जो कुछ कहना हो, आ कर कहें। हीरा-बहू का नाम था पुन्नी। बच्चे दो ही हुए थे। लेकिन ढल गई थी। बनाव-सिंगार से समय के आघात का शमन करना चाहती थी, लेकिन गृहस्थी में भोजन ही का ठिकाना न था, सिंगार के लिए पैसे कहाँ से आते? इस अभाव और विवशता ने उसकी प्रकृति का जल सुखा कर कठोर और शुष्क बना दिया था, जिस पर एक बार गावड़ा भी उचट जाता था। समीप आ कर चौधरी का हाथ पकड़ने की चेष्टा करती हुई बोली - आदमी को क्यों भेज दूँ? जो कुछ कहना हो, मुझसे कहो न? मैंने कह दिया, मेरे बाँस न कटेंगे। चौधरी हाथ छुड़ाता था और पुन्नी बार-बार पकड़ लेती थी। एक मिनट तक यही हाथा-पाई होती रही। अंत में चौधरी ने उसे जोर से पीछे ढकेल दिया। पुन्नी धक्का खा कर गिर पड़ी, मगर फिर संभली और पाँव से तल्ली निकाल कर चौधरी के सिर, मुँह, पीठ पर अंधाधुंध जमाने लगी। बँसोर हो कर उसे ढकेल दे? उसका यह अपमान! मारती जाती थी और रोती भी जाती थी। चौधरी उसे धक्का दे कर नारी जाति पर बल का प्रयोग करके गच्चा खा चुका था। खड़े-खड़े मार खाने के सिवा इस संकट से बचने की उसके पास और कोई दवा न थी। पुन्नी का रोना सुन कर होरी भी दौड़ा हुआ आया। पुन्नी ने उसे देख कर और जोर से चिल्लाना शुरू किया। होरी ने समझा, चौधरी ने पुनिया को मारा है। खून ने जोश मारा और अलगौझे की ऊँची बाधा को तोड़ता हुआ, सब कुछ अपने अंदर समेटने के लिए बाहर निकल पड़ा। चौधरी को जोर से एक लात जमा कर बोला - अब अपना भला चाहते हो चौधरी, तो यहाँ से चले जाओ, नहीं तुम्हारी लहास उठेगी। तुमने अपने को समझा क्या है? तुम्हारी इतनी मजाल कि मेरी बहू पर हाथ उठाओ। चौधरी कसमें खा-खा कर अपने सफाई देने लगा। तल्लियों की चोट में उसकी अपराधी आत्मा मौन थी। यह लात उसे निरपराध मिली और उसके फुले हुए गाल आँसुओं से भीग गए। उसने तो बहू को छुआ भी नहीं। क्या वह इतना गँवार है कि महतो के घर की औरतों पर हाथ उठाएगा?
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