मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-4

पेज-28

धनिया ने कहा - अब खड़े क्या हो? गोबर साँझ को आएगा।

होरी ने और कुछ न कहा - कहीं धनिया फिर न कुछ कह बैठे।

भोजन करके नीम की छाँह में लेट रहा।

रूपा रोती हुई आई। नंगे बदन एक लँगोटी लगाए, झबरे बाल इधर-उधर बिखरे हुए। होरी की छाती पर लोट गई। उसकी बड़ी बहिन सोना कहती है - गाय आएगी, तो उसका गोबर मैं पाथूँगी। रूपा यह नहीं बर्दाश्त कर सकती है। सोना ऐसी कहाँ की बड़ी रानी है कि सारा गोबर आप पाथ डाले। रूपा उससे किस बात में कम है? सोना रोटी पकाती है, तो क्या रूपा बर्तन नहीं माँजती? सोना पानी लाती है, तो क्या रूपा कुएँ पर रस्सी नहीं ले जाती? सोना तो कलसा भर कर इठलाती चली आती है। रस्सी समेट कर रूपा ही लाती है। गोबर दोनों साथ पाथती हैं। सोना खेत गोड़ने जाती है, तो क्या रूपा बकरी चराने नहीं जाती? फिर सोना क्यों अकेली गोबर पाथेगी? यह अन्याय रूपा कैसे सहे? होरी ने उसके भोलेपन पर मुग्ध हो कर कहा - नहीं, गाय का गोबर तू पाथना ! सोना गाय के पास आय तो भगा देना।

रूपा ने पिता के गले में हाथ डाल कर कहा - दूध भी मैं ही दुहूँगी।

'हाँ-हाँ, तू न दुहेगी तो और कौन दुहेगा?'

'वह मेरी गाय होगी।'

'हाँ, सोलहों आने तेरी।'

रूपा प्रसन्न हो कर अपने विजय का शुभ समाचार पराजित सोना को सुनाने चली गई। गाय मेरी होगी, उसका दूध मैं दुहूँगी, उसका गोबर मैं पाथूँगी, तुझे कुछ न मिलेगा।

सोना उम्र से किशोरी, देह के गठन में युवती और बुद्धि से बालिका थी, जैसे उसका यौवन उसे आगे खींचता था, बालपन पीछे। कुछ बातों में इतनी चतुर कि ग्रेजुएट युवतियों को पढ़ाए, कुछ बातों में इतनी अल्हड़ कि शिशुओं से भी पीछे। लंबा, रूखा, किंतु प्रसन्न मुख, ठोड़ी नीचे को खिंची हुई, आँखों में एक प्रकार की तृप्ति, न केशों में तेल, न आँखों में काजल, न देह पर कोई आभूषण, जैसे गृहस्थी के भार ने यौवन को दबा कर बौना कर दिया हो।

सिर को एक झटका दे कर बोली - जा, तू गोबर पाथ। जब तू दूध दुह कर रखेगी तो मैं पी जाऊँगी।

'मैं दूध की हाँड़ी ताले में बंद करके रखूँगी।'

'मैं ताला तोड़ कर दूध निकाल लाऊँगी।'

 

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