रुद्रपाल चला गया था। रायसाहब ने कार मँगवाई और मेहता से मिलने चले। मेहता अगर चाहें तो मालती को समझा सकते हैं। सरोज भी उनकी अवहेलना न करेगी, अगर दस-बीस हजार रुपए बल खाने से भी विवाह रूक जाए, तो वह देने को तैयार थे। उन्हें उस स्वार्थ के नशे में यह बिलकुल खयाल न रहा कि वह मेहता के पास ऐसा प्रस्ताव ले कर जा रहे हैं, जिस पर मेहता की हमदर्दी कभी उनके साथ न होगी। मेहता ने सारा वृत्तांत सुन कर उन्हें बनाना शुरू किया। गंभीर मुँह बना कर बोले - यह तो आपकी प्रतिष्ठा का सवाल है। रायसाहब भाँप न सके। उछल कर बोले - जी हाँ, केवल प्रतिष्ठा का। राजा सूर्यप्रताप सिंह को तो आप जानते हैं- 'मैंने उनकी लड़की को भी देखा है। सरोज उसके पाँव की धूल भी नहीं है।' 'मगर इस लौंडे की अक्ल पर पत्थर पड़ गया है।' 'तो मारिए गोली, आपको क्या करना है। वही पछताएगा।' 'ओह! यही तो नहीं देखा जाता मेहता जी! मिलती हुई प्रतिष्ठा नहीं छोड़ी जाती। मैं इस प्रतिष्ठा पर अपनी आधी रियासत कुर्बान करने को तैयार हूँ। आप मालतीदेवी को समझा दें, तो काम बन जाए। इधर से इनकार हो जाय, तो रुद्रपाल सिर पीट कर रह जायगा और यह नशा दस-पाँच दिन में आप उतर जायगा। यह प्रेम-व्रेम कुछ नहीं,केवल सनक है। 'लेकिन मालती बिना कुछ रिश्वत लिए मानेगी नहीं।' 'आप जो कुछ कहिए, मैं उसे दूँगा। वह चाहे तो मैं उसे यहीं के डफरिन हास्पिटल का इंचार्ज बना दूँ।' 'मान लीजिए, वह आपको चाहे तो आप राजी होंगे। जब से आपको मिनिस्ट्री मिली है, आपके विषय में उसकी राय जरूर बदल गई होगी।' रायसाहब ने मेहता के चेहरे की तरफ देखा। उस पर मुस्कराहट की रेखा नजर आई। समझ गए। व्यथित स्वर में बोले - आपको भी मुझसे मजाक करने का यही अवसर मिला। मैं आपके पास इसलिए आया था कि मुझे यकीन था कि आप मेरी हालत पर विचार करेंगे, मुझे उचित राय देंगे। और आप मुझे बनाने लगे। जिसके दाँत नहीं दुखे, वह दाँतों का दर्द क्या जाने! मेहता ने गंभीर स्वर में कहा - क्षमा कीजिएगा, आप ऐसा प्रश्न ही ले कर आए कि उस पर गंभीर विचार करना मैं हास्यास्पद समझता हूँ। आप अपनी शादी के जिम्मेदार हो सकते हैं।लड़के की शादी का दायित्व आप क्यों अपने ऊपर लेते हैं, खास कर जब आपका लड़का बालिग है और अपना नफा-नुकसान समझता है। कम-से-कम मैं तो शादी जैसे महत्व के मुआमले में प्रतिष्ठा का कोई स्थान नहीं समझता। प्रतिष्ठा धन से होती तो राजा साहब उस नंगे बाबा के सामने घंटों गुलामों की तरह हाथ बाँधे खड़े न रहते। मालूम नहीं कहाँ तक सही है, पर राजा साहब अपने इलाके के दारोगा तक को सलाम करते हैं, इसे आप प्रतिष्ठा कहते हैं? लखनऊ में आप किसी दुकानदार, किसी अहलकार, किसी राहगीर से पूछिए, उनका नाम सुन कर गालियाँ ही देगा। इसी को आप प्रतिष्ठा कहते हैं? जा कर आराम से बैठिए। सरोज से अच्छी वधू आपको बड़ी मुश्किल से मिलेगी।
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