मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-36

पेज-350

मैं तो दोपहर को छन-भर पौढ़ रहती हूँ।'

'मैं भी चबेना करके पेड़ के नीचे सो लेता हूँ।'

'बड़ी लू लगती होगी।'

'लू क्या लगेगी? अच्छी छाँह है।'

'मैं डरती हूँ, कहीं तुम बीमार न पड़ जाओ।'

'चल; बीमार वह पड़ते हैं, जिन्हें बीमार पड़ने की फुरसत होती है। यहाँ तो यह धुन है कि अबकी गोबर आय, तो रामसेवक के आधे रुपए जमा रहें। कुछ वह भी लायगा। बस, इस साल इस रिन से गला छूट जाय, तो दूसरी जिंदगी हो।'

'गोबर की अबकी बड़ी याद आती है, कितना सुशील हो गया है।'

'चलती बेर पैरों पर गिर पड़ा।'

'मंगल वहाँ से आया तो कितना तैयार था। यहाँ आ कर कितना दुबला हो गया है।'

'वहाँ दूध, मक्खन, क्या नहीं पाता था? यहाँ रोटी मिल जाय, वही बहुत है। ठीकेदार से रुपए मिले और गाय लाया।'

'गाय तो कभी आ गई होती, लेकिन तुम जब कहना मानो। अपनी खेती तो सँभाले न सँभलती थी, पुनिया का भार भी अपने सिर ले लिया।'

'क्या करता, अपना धरम भी तो कुछ है। हीरा ने नालायकी की तो उसके बाल-बच्चों को सँभालने वाला तो कोई चाहिए ही था। कौन था मेरे सिवा बता? मैं न मदद करता, तो आज उनकी क्या गति होती, सोच। इतना सब करने पर भी तो मंगरू ने उस पर नालिस कर ही दी।'

'रुपए गाड़ कर रखेगी तो क्या नालिस न होगी?'

'क्या बकती है। खेती से पेट चल जाय, यही बहुत है। गाड़ कर कोई क्या रखेगा।'

'हीरा तो जैसे संसार से ही चला गया।'

'मेरा मन तो कहता है कि वह आवेगा, कभी न कभी जरूर।'

दोनों सोए। होरी अँधेरे मुँह उठा तो देखता है कि हीरा सामने खड़ा है, बाल बढ़े हुए, कपड़े तार-तार, मुँह सूखा हुआ, देह में रक्त और माँस का नाम नहीं, जैसे कद भी छोटा हो गया है। दौड़ कर होरी के कदमों पर गिर पड़ा।

होरी ने उसे छाती से लगा कर कहा - तुम तो बिलकुल घुल गए हीरा! कब आए? आज तुम्हारी बार-बार याद आ रही थी। बीमार हो क्या?

आज उसकी आँखों में वह हीरा न था, जिसने उसकी जिंदगी तल्ख कर दी थी, बल्कि वह हीरा था, जो बे-माँ-बाप का छोटा-सा बालक था। बीच के ये पच्चीस-तीस साल जैसे मिट गए, उनका कोई चिह्न भी नहीं था।

हीरा ने कुछ जवाब न दिया। खड़ा रो रहा था।

होरी ने उसका हाथ पकड़ कर गदगद कंठ से कहा - क्यों रोते हो भैया, आदमी से भूल-चूक होती ही है। कहाँ रहा इतने दिन?

हीरा कातर स्वर में बोला - कहाँ बताऊँ दादा! बस, यही समझ लो कि तुम्हारे दर्शन बदे थे, बच गया। हत्या सिर पर सवार थी। ऐसा लगता था कि वह गऊ मेरे सामने खड़ी है, हरदम, सोते-जागते, कभी आँखों से ओझल न होती। मैं पागल हो गया और पाँच साल पागलखाने में रहा। आज वहाँ से निकले छ: महीने हुए। माँगता-खाता फिरता रहा। यहाँ आने की हिम्मत ही न पड़ती थी। संसार को कौन मुँह दिखाऊँगा? आखिर जी न माना। कलेजा मजबूत करके चला आया। तुमने बाल-बच्चों को...

होरी ने बात काटी - तुम नाहक भागे। अरे, दारोगा को दस-पाँच दे कर मामला रफे-दफे करा दिया जाता और होता क्या?

'तुम से जीते-जी उरिन न हूँगा दादा!'

'मैं कोई गैर थोड़े ही हूँ भैया!'

 

 

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