मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-36

पेज-351

होरी प्रसन्न था। जीवन के सारे संकट, सारी निराशाएँ, मानो उसके चरणों पर लोट रही थीं। कौन कहता है, जीवन-संग्राम में वह हारा है। यह उल्लास, यह गर्व, यह पुलक क्या हार के लक्षण हैं? इन्हीं हारों में उसकी विजय है। उसके टूटे-फूटे अस्त्र उसकी विजय पताकाएँ हैं। उसकी छाती फूल उठी है। मुख पर तेज आ गया है। हीरा की कृतज्ञता में उसके जीवन की सारी सफलता मूर्तिमान हो गई है। उसके बखार में सौ-दो सौ मन अनाज भरा होता, उसकी हाँडी में हजार-पाँच सौ गड़े होते, पर उससे यह स्वर्ग का सुख क्या मिल सकता था?

हीरा ने उसे सिर पर पाँव तक देख कर कहा - तुम भी तो बहुत दुबले हो गए दादा!

होरी ने हँस कर कहा - तो क्या यह मेरे मोटे होने के दिन हैं? मोटे वह होते हैं, जिन्हें न रिन की सोच होती है, न इज्जत की। इस जमाने में मोटा होना बेहयाई है। सौ को दुबला करके तब एक मोटा होता है। ऐसे मोटेपन में क्या सुख? सुख तो जब है कि सभी मोटे हों, सोभा से भेंट हुई।

'उससे तो रात ही भेंट हो गई थी। तुमने तो अपनों को भी पाला, जो तुमसे बैर करते थे, उनको भी पाला और अपना मरजाद बनाए बैठे हो। उसने तो खेती-बारी सब बेच-बाच डाली और अब भगवान ही जाने, उसका निबाह कैसे होगा?'

आज होरी खुदाई करने चला, तो देह भारी थी। रात की थकन दूर न हो पाई थी, पर उसके कदम तेज थे और चाल में निर्द्वंदता की अकड़ थी।

आज दस बजे ही से लू चलने लगी और दोपहर होते-होते तो आग बरस रही थी। होरी कंकड़ के झौवे उठा-उठा कर खदान से सड़क पर लाता था और गाड़ी पर लादता था। जब दोपहर की छुट्टी हुई, तो वह बेदम हो गया था। ऐसी थकन उसे कभी न हुई थी। उसके पाँव तक न उठते थे। देह भीतर से झुलसी जा रही थी। उसने न स्नान ही किया न चबेना, उसी थकन में अपना अँगोछा बिछा कर एक पेड़ के नीचे सो रहा, मगर प्यास के मारे कंठ सूखा जाता है। खाली पेट पानी पीना ठीक नहीं। उसने प्यास को रोकने की चेष्टा की, लेकिन प्रतिक्षण भीतर की दाह बढ़ती जाती थी, न रहा गया। एक मजदूर ने बाल्टी भर रखी थी और चबेना कर रहा था। होरी ने उठ कर एक लोटा पानी खींच कर पिया और फिर आ कर लेट रहा, मगर आधा घंटे में उसे कै हो गई और चेहरे पर मुर्दनी-सी छा गई।

उस मजदूर ने कहा - कैसा जी है होरी भैया?

होरी के सिर में चक्कर आ रहा था। बोला - कुछ नहीं, अच्छा हूँ।

यह कहते-कहते उसे फिर कै हुई और हाथ-पाँव ठंडे होने लगे। यह सिर में चक्कर क्यों आ रहा है? आँखों के सामने जैसे अँधेरा छाया जाता है। उसकी आँखें बंद हो गईं और जीवन की सारी स्मृतियाँ सजीव हो-हो कर हृदय-पट पर आने लगीं, लेकिन बेक्रम, आगे की पीछे, पीछे की आगे, स्वप्न-चित्रों की भाँति बेमेल, विकृत और असंबद्ध, वह सुखद बालपन आया, जब वह गुल्लियाँ खेलता था और माँ की गोद में सोता था। फिर देखा, जैसे गोबर आया है और उसके पैरों पर गिर रहा है। फिर दृश्य बदला, धनिया दुलहिन बनी हुई, लाल चुंदरी पहने उसको भोजन करा रही थी। फिर एक गाय का चित्र सामने आया, बिलकुल कामधेनु-सी। उसने उसका दूध दुहा और मंगल को पिला रहा था कि गाय एक देवी बन गई और......

उसी मजदूर ने पुकारा - दोपहरी ढल गई होरी, चलो झौवा उठाओ।

होरी कुछ न बोला। उसके प्राण तो न जाने किस-किस लोक में उड़ रहे थे। उसकी देह जल रही थी, हाथ-पाँव ठंडे हो रहे थे। लू लग गई थी।

उसके घर आदमी दौड़ाया गया। एक घंटा में धनिया दौड़ी हुई आ पहुँची। सोभा और हीरा पीछे-पीछे खटोले की डोली बना कर ला रहे थे।

धनिया ने होरी की देह छुई, तो उसका कलेजा सन से हो गया। मुख कांतिहीन हो गया था।

काँपती हुई आवाज से बोली - कैसा जी है तुम्हारा? होरी ने अस्थिर आँखों से देखा और बोला - तुम आ गए गोबर? मैंने मंगल के लिए गाय ले ली है। वह खड़ी है, देखो।

धनिया ने मौत की सूरत देखी थी। उसे पहचानती थी। उसे दबे पाँव आते भी देखा था, आँधी की तरह आते भी देखा था। उसके सामने सास मरी, ससुर मरा, अपने दो बालक मरे, गाँव के पचासों आदमी मरे। प्राण में एक धक्का-सा लगा। वह आधार जिस पर जीवन टिका हुआ था, जैसे खिसका जा रहा था, लेकिन नहीं, यह धैर्य का समय है, उसकी शंका निर्मूल है, लू लग गई है, उसी से अचेत हो गए हैं।

उमड़ते हुए आँसुओं को रोक कर बोली - मेरी ओर देखो, मैं हूँ, क्या मुझे नहीं पहचानते?

होरी की चेतना लौटी। मृत्यु समीप आ गई थी, आग दहकने वाली थी। धुआँ शांत हो गया था। धनिया को दीन आँखों से देखा, दोनो कोनों से आँसू की दो बूँदें ढुलक पड़ीं। क्षीण स्वर में बोला - मेरा कहा सुना माफ करना धनिया! अब जाता हूँ। गाय की लालसा मन में ही रह गई। अब तो यहाँ के रुपए करिया करम में जाएँगे। रो मत धनिया, अब कब तक जिलाएगी? सब दुर्दसा तो हो गई। अब मरने दे।

और उसकी आँखें फिर बंद हो गईं। उसी वक्त हीरा और सोभा डोली ले कर पहुँच गए। होरी को उठा कर डोली में लिटाया और गाँव की ओर चले।

गाँव में यह खबर हवा की तरह फैल गई। सारा गाँव जमा हो गया। होरी खाट पर पड़ा शायद सब कुछ देखता था, सब कुछ समझता था, पर जबान बंद हो गई थी। हाँ, उसकी आँखों से बहते हुए आँसू बतला रहे थे, कि मोह का बंधन तोड़ना कितना कठिन हो रहा है। जो कुछ अपने से नहीं बन पड़ा, उसी के दु:ख का नाम तो मोह है। पाले हुए कर्तव्य और निपटाए हुए कामों का क्या मोह! मोह तो उन अनाथों को छोड़ जाने में है, जिनके साथ हम अपना कर्तव्य न निभा सके, उन अधूरे मंसूबों में है, जिन्हें हम पूरा न कर सके।

मगर सब कुछ समझ कर भी धनिया आशा की मिटती हुई छाया को पकड़े हुए थी। आँखों से आँसू गिर रहे थे, मगर यंत्र की भाँति दौड़-दौड़ कर कभी आम भून कर पना बनाती, कभी होरी की देह में भूसी की मालिश करती। क्या करे, पैसे नहीं हैं, नहीं किसी को भेज कर डाक्टर बुलाती।

हीरा ने रोते हुए कहा - भाभी दिल कड़ा करो। गोदान करा दो, दादा चले।

धनिया ने उसकी ओर तिरस्कार की आँखों से देखा। अब वह दिल को और कितना कठोर करे? अपने पति के प्रति उसका जो धर्म है, क्या यह उसको बताना पड़ेगा? जो जीवन का संगी था, उसके नाम को रोना ही क्या उसका धर्म है?

और कई आवाजें आईं - हाँ, गोदान करा दो, अब यही समय है।

धनिया यंत्र की भाँति उठी, आज जो सुतली बेची थी, उसके बीस आने पैसे लाई और पति के ठंडे हाथ में रख कर सामने खड़े मातादीन से बोली - महराज, घर में न गाय है, न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गोदान है।

और पछाड़ खा कर गिर पड़ी।

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