|
|
मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि
कर्मभूमि
दूसरा भाग - दो
पेज- 101
पयाग बोला-चुड़ैल है, चुड़ैल ।
अमर ने खिसियाकर कहा-तुमने नाहक उससे कहा, दादा मुझे क्या, यह गांव न सही और गांव सही।
मुन्नी का चेहरा फक हो गया।
गूदड़ बोले-नहीं भैया, कैसी बातें करते हो तुम। मेरे साझीदार बनकर रहो। महन्तजी से कहकर दो-चार बीघे का और बंदोबस्त करा दूंगा। तुम्हारी झोंपड़ी अलग बन जाएगी। खाने-पीने की कोई बात नहीं। एक भला आदमी तो गांव में हो जायेगा। नहीं, कभी एक चपरासी गांव में आ गया, तो सबकी सांस नीचे-ऊपर होने लगती है।
आधा घंटे में सलोनी फिर लौटी और चौधरी से बोली-तुम्हीं मेरे खेत क्यों बटाई पर नहीं ले लेते-
चौधरी ने घुड़ककर कहा-मुझे नहीं चाहिए। धारे रह अपने खेत।
सलोनी ने अमर से अपील की-भैया, तुम्हीं सोचो, मैंने कुछ बेजा कहा- बेजाने-सुने किसी को कोई अपनी चीज दे देता है-
अमर ने सांत्वना दी-नहीं काकी, तुमने बहुत ठीक किया। इस तरह विश्वास कर लेने से धोखा हो जाता है।
सलोनी को कुछ ढाढ़स हुआ-तुमसे तो बेटा, मेरी रात ही भर की जान-पहचान है न- जिसके पास मेरे खेत हैं, वह तो मेरा ही भाई-बंद है। उससे छीनकर तुम्हें दे दूं, तो वह अपने मन में क्या कहेगा- सोचो, अगर मैं अनुचित कहती हूं तो मेरे मुंह पर थप्पड़ मारो। वह मेरे साथ बेईमानी करता है, यह जानती हूं, पर है तो अपना ही हाड़-मांस। उसके मुंह की रोटी छीनकर तुम्हें दे दूं तो तुम मुझे भला कहोगे, बोलो-
सलोनी ने यह दलील खुद सोच निकाली थी या किसी ने सुझा दी थी पर इसने गूदड़ को लाजवाब कर दिया।
|
|
|