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मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि
कर्मभूमि
दूसरा भाग - तीन
पेज- 103
पाठशाला बंद हुई। अमर तेजा और दुरजन की उंगली पकड़े हुए आकर चौधरी से बोला-मुझे तो आज देर हो गई है दादा, तुमने खा-पी लिया न-
चौधरी स्नेह में डूब गए-हां, और क्या, मैं ही तो पहर रात से जुता हुआ हूं मैं ही तो जूते लेकर रिसीकेस गया था। इस तरह जान दोगे, तो मुझे तुम्हारी पाठसाला बंद करनी पड़ेगी।
अमर की पाठशाला में अब लड़कियां भी पढ़ने लगी थीं। उसके आनंद का पारावार न था।
भोजन करके चौधरी सोए। अमर चलने लगा, तो मुन्नी ने कहा-आज तो लाला तुमने बड़ा भारी पाला मारा। दादा ने आज एक घूंट भी नहीं पी।
अमर उछलकर बोला-कुछ कहते थे-
'तुम्हारा जस गाते थे, और क्या कहते- में तो समझती थी, मरकर ही छोड़ेंगे पर तुम्हारा उपदेस काम कर गया ।'
अमर के मन में कई दिन से मुन्नी का वृत्तांत पूछने की इच्छा हो रही थी पर अवसर न पाता था। आज मौका पाकर उसने पूछा-तुम मुझे नहीं पहचानती हो लेकिन मैं तुम्हें पहचानता हूं।
मुन्नी के मुख का रंग उड़ गया। उसने चुभती हुई आंखों से अमर को देखकर कहा-तुमने कह दिया, तो मुझे याद आ रहा है। तुम्हें कहीं देखा है।
'काशी के मुकदमे की बात याद करो।'
'अच्छा, हां, याद आ गया। तुम्हीं डॉक्टर साहब के साथ रुपये जमा करते फिरते थे मगर तुम यहां कैसे आ गए?'
'पिताजी से लड़ाई हो गई। तुम यहां कैसे पहुंचीं और इन लोगों के बीच में कैसे आ पड़ीं?'
मुन्नी घर में जाती हुई बोली-फिर कभी बताऊंगी पर तुम्हारे हाथ जोड़ती हूं, यहां किसी से कुछ न कहना।
अमर ने अपनी कोठरी में जाकर बिछावन के नीचे से धोतियों का एक जोड़ा निकाला और सलोनी के घर पहुंचा। सलोनी भीतर पड़ी नींद को बुलाने के लिए गा रही थी। अमर की आवाज सुनकर टट्टी खोल दी और बोली-क्या है बेटा- आज तो बड़ा अंधेरा है। खाना खा चुके- मैं तो अभी चरखा कात रही थी। पीठ दुखने लगी, तो आकर पड़ रही।
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