मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

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कर्मभूमि

दूसरा भाग - तीन

पेज- 104

अमर ने धोतियों का जोड़ा निकालकर कहा-मैं यह जोड़ा लाया हूं। इसे ले लो। तुम्हारा सूत पूरा हो जाएगा, तो मैं ले लूंगा।
सलोनी उस दिन अमर पर अविश्वास करने के कारण उससे सकुचाती थी। ऐसे भले आदमी पर उसने क्यों अविश्वास किया। लजाती हुई बोली-अभी तुम क्यों लाए भैया, सूत कत जाता, तो ले आते।
अमर के हाथ में लालटेन थी। बुढ़िया ने जोड़ा ले लिया और उसकी तहों को खोलकर ललचाई हुई आंखों से देखने लगी। सहसा वह बोल उठी-यह तो दो हैं बेटा, मैं दो लेकर क्या करूंगी। एक तुम ले जाओ ।
अमरकान्त ने कहा-तुम दोनों रख लो, काकी एक से कैसे काम चलेगा-
सलोनी को अपने जीवन के सुनहरे दिनों में भी दो धोतियां मयस्सर न हुई थीं। पति और पुत्र के राज में भी एक धोती से ज्यादा कभी न मिली। और आज ऐसी सुंदर दो-दो साड़ियां मिल रही हैं, जबरदस्ती दी जा रही हैं। उसके अंत:करण से मानो दूध की धारा बहने लगी। उसका सारा वैधाव्य, सारा मात्त्व आशीर्वाद बनकर उसके एक-एक रोम को स्पंदित करने लगा।
अमरकान्त कोठरी से बाहर निकल आया। सलोनी रोती रही।
अपनी झोंपड़ी में आकर अमर कुछ अनिश्चित दशा में खड़ा रहा। फिर अपनी डायरी लिखने बैठ गया। उसी वक्त चौधरी के घर का द्वार खुला और मुन्नी कलसा लिए पानी भरने निकली। इधर लालटेन जलती देखकर वह इधर चली आई, और द्वार पर खड़ी होकर बोली-अभी सोए नहीं लाला, रात तो बहुत हो गई।

अमर बाहर निकलकर बोला-हां अभी नींद नहीं आई। क्या पानी नहीं था-
'हां, आज सब पानी उठ गया। अब जो प्यास लगी, तो कहीं एक बूंद नहीं।'
'लाओ, मैं खींच ला दूं । तुम इस अंधेरी रात में कहां जाओगी?'
'अंधेरी रात में शहर वालों को डर लगता है। हम तो गांव के हैं।'
'नहीं मुन्नी, मैं तुम्हें न जाने दूंगा।'
'तो क्या मेरी जान तुम्हारी जान से प्यारी है?'
'मेरी जैसी एक लाख जानें तुम्हारी जान पर न्यौछावर हैं।'

 

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