मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

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कर्मभूमि

दूसरा भाग - छ:

पेज- 115

गूदड़ ने युवक की ओर आदर की दृष्टि से देखा-तुम लोगों ने भूरे की बात सुन ली। तो यही सबकी सलाह है-
भूरे बोला-अगर किसी को उजर करना हो तो करे।
एक बूढ़े ने कहा-एक तुम्हारे या हमारे छोड़ देने से क्या होता है- सारी बिरादरी तो खाती है।
भूरे ने जवाब दिया-बिरादरी खाती है, बिरादरी नीच बनी रहे । अपना-अपना धरम अपने-अपने साथ है।
गूदड़ ने भूरे को संबोधित किया-तुम ठीक कहते हो, भूरे लड़कों का पढ़ना ही ले लो। पहले कोई भेजता था अपने लड़कों को - मगर जब हमारे लड़के पढ़ने लगे, तो दूसरे गांवों के लड़के भी आ गए।
काशी बोला-मुरदा मांस न खाने के अपराध का दंड बिरादरी हमें न देगी। इसका मैं जुम्मा लेता हूं। देख लेना आज की बात सांझ तक चारों ओर फैल जाएगी, और वह लोग भी यही करेंगे। अमर भैया का कितना मान है। किसकी मजाल है कि उनकी बात को काट दे।
पयाग ने देखा, अब दाल न गलेगी, तो सबको धिक्कारकर बोला-अब मेहरियों का राज है, मेहरियां जो कुछ न करें वह थोड़ा।
यह कहता हुआ वह गंडासा लिए घर चला गया।
गूदड़ लपके हुए गंगा की ओर चले और एक गोली के टप्पे से पुकारकर बोले-यहां क्यों खड़े हो भैया, चलो घर, सब झगड़ा तय हो गया।
अमर विचार-मग्न था। आवाज उसके कानों तक न पहुंची।
चौधरी ने और समीप जाकर कहा-यहां कब तक खड़े रहोगे भैया-
'नहीं दादा, मुझे यहीं रहने दो। तुम लोग वहां काट-कूट करोगे, मुझसे देखा न जाएगा। जब तुम फुर्सत पा जाओगे, तो मैं आ जाऊंगा।'
'बहू कहती थी, तुम हमारे घर खाने को भी नाहीं कहते हो?'
'हां दादा, आज तो न खाऊंगा, मुझे कै हो जाएगी।'
'लेकिन हमारे यहां तो आए दिन यही धंधा लगा रहता है।'
'दो-चार दिन के बाद मेरी भी आदत पड़ जाएगी।'
'तुम हमें मन में राक्षस समझ रहे होगे?'

 

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