मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

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कर्मभूमि

दूसरा भाग - छ:

पेज- 116

अमर ने छाती पर हाथ रखकर कहा-नहीं दादा, मैं तो तुम लोगों से कुछ सीखने, तुम्हारी कुछ सेवा करके अपना उधार करने आया हूं। यह तो अपनी-अपनी प्रथा है। चीन एक बहुत बड़ा देश है। वहां बहुत से आदमी बुध्‍द भगवान् को मानते हैं। उनके धर्म में किसी जानवर को मारना पाप है। इसलिए वह लोग मरे हुए जानवर ही खाते हैं। कुत्तो, बिल्ली, गीदड़ किसी को भी नहीं छोड़ते। तो क्या वह हमसे नीच हैं- कभी नहीं। हमारे ही देश में कितने ही ब्राह्यण, क्षत्री मांस खाते हैं- वह जीभ के स्वाद के लिए जीव-हत्या करते हैं। तुम उनसे तो कहीं अच्छे हो।
गूदड़ ने हंसकर कहा-भैया, तुम बड़े बुद्धिमान हो, तुमसे कोई न जीतेगा चलो, अब कोई मुरदा नहीं खाएगा। हम लोगों ने तय कर लिया। हमने क्या तय किया, बहू ने तय किया। मगर खाल तो न फेंकनी होगी-
अमर ने प्रसन्न होकर कहा-नहीं दादा, खाल क्यों फेंकोगे- जूते बनाना तो सबसे बड़ी सेवा है। मगर क्या भाभी बहुत बिगड़ी थीं-
गूदड़ बोला-बिगड़ी ही नहीं थी भैया, वह तो जान देने को तैयार थी। गाय के पास बैठ गई और बोली-अब चलाओ गंडासा, पहला गंडासा मेरी गर्दन पर होगा फिर किसकी हिम्मत थी कि गंडासा चलाता।
अमर का हृदय जैसे एक छलांग मारकर मुन्नी के चरणों पर लोटने लगा।

 

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