मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

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कर्मभूमि

पांचवा भाग – तीन

पेज- 228

सेठजी ने नम्रता से कहा-अब मैं इस उम्र में क्या काम करूंगा। बूढ़े दिल में जवानी का जोश कहां से आए- बहू जेल में है, लड़का जेल में है, शायद लड़की भी जेल की तैयारी कर रही है और मैं चैन से खाता-पीता हूं। आराम से सोता हूं। मेरी औलाद मेरे पापों का प्रायश्चित कर रही है, मैंने गरीबों का कितना खून चूसा है, कितने घर तबाह किए हैं। उसकी याद करके खुद शर्मिंदा हो जाता हूं। अगर जवानी में समझ आ गई होती, तो कुछ अपना सुधार करता। अब क्या करूंगा- बाप संतान का गुरू होता है। उसी के पीछे लड़के चलते हैं। मुझे अपने लड़कों के पीछे चलना पड़ा। मैं धर्म की असलियत को न समझकर धर्म के स्वांग को धर्म समझे हुए था। यही मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल थी। मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि दुनिया का कैंडा ही बिगड़ा हुआ है। जब तक हमें जायदाद पैदा करने की धुन रहेगी, हम धर्म से कोसों दूर रहेंगे। ईश्वर ने संसार को क्‍यों इस ढंग पर लगाया, यह मेरी समझ में नहीं आता। दुनिया को जायदाद के मोह-बंधन से छुड़ाना पड़ेगा, तभी आदमी आदमी होगा, तभी दुनिया से पाप का नाश होगा।
सलीम ऐसी ऊंची बातों में न पड़ना चाहता था। उसने सोचा-जब मैं भी इनकी तरह जिंदगी के सुख भोग लूंगा तो मरते-समय फिलासफर बन जाऊंगा। दोनों कई मिनट तक चुपचाप बैठे रहे। फिर लालाजी स्नेह से भरे स्वर में बोले-नौकर हो जाने पर आदमी को मालिक का हुक्म मानना ही पड़ता है। इसकी मैं बुराई नहीं करता। हां, एक बात कहूंगा। जिन पर तुमने जुल्म किया है, चलकर उनके आंसू पोंछ दो। यह गरीब आदमी थोड़ी-सी भलमनसी से काबू में आ जाते हैं। सरकार की नीति तो तुम नहीं बदल सकते, लेकिन इतना तो कर सकते हो कि किसी पर बेजा सख्ती न करो।
सलीम ने शरमाते हुए कहा-लोगों की गुस्ताखी पर गुस्सा आ जाता है, वरना मैं तो खुद नहीं चाहता कि किसी पर सख्ती करूं। फिर सिर पर कितनी बड़ी जिम्मेदारी है। लगान न वसूल हुआ, तो मैं कितना नालायक समझा जाऊंगा-
समरकान्त ने तेज होकर कहा-तो बेटा, लगान तो न वसूल होगा, हां आदमियों के खून से हाथ रंग सकते हो।
'यही तो देखना है।'
'देख लेना। मैंने भी इसी दुनिया में बाल सफेद किए हैं। हमारे किसान अफसरों की सूरत से कांपते थे, लेकिन जमाना बदल रहा है। अब उन्हें भी मान-अपमान का खयाल होता है। तुम मुर्ति में बदनामी उठा रहे हो।'
'अपना फर्ज अदा करना बदनामी है, तो मुझे उसकी परवाह नहीं।'
समरकान्त ने अफसरी के इस अभिमान पर हंसकर कहा-फर्ज में थोड़ी-सी मिठास मिला देने से किसी का कुछ नहीं बिगड़ता, हां, बन बहुत कुछ जाता है, यह बेचारे किसान ऐसे गरीब हैं कि थोड़ी-सी हमदर्दी करके उन्हें अपना गुलाम बना सकते हो। हुकूमत वह बहुत झेल चुके। अब भलमनसी का बरताब चाहते हैं। जिस औरत को तुमने हंटरों से मारा, उसे एक बार माता कहकर उसकी गरदन काट सकते थे। यह मत समझो कि तुम उन पर हुकूमत करने आए हो। यह समझो कि उनकी सेवा करने आए हो मान लिया, तुम्हें तलब सरकार से मिलती है, लेकिन आती तो है इन्हीं की गांठ से। कोई मूर्ख हो तो उसे समझाऊं। तुम भगवान् की कृपा से आप ही विद्वान् हो। तुम्हें क्या समझाऊं- तुम पुलिस वालों की बातों में आ गए। यही बात है न-
सलीम भला यह कैसे स्वीकार करता-

 

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