मुंशी प्रेमचंद - कर्मभूमि

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कर्मभूमि

पांचवा भाग – तीन

पेज- 229

लेकिन समरकान्त अड़े रहे-मैं इसे नहीं मान सकता। तुम तो किसी से नजर नहीं लेना चाहते, लेकिन जिन लोगों की रोटियां नोच-खसोट पर चलती हैं उन्होंने जरूर तुम्हें भरा होगा। तुम्हारा चेहरा कहे देता है कि तुम्हें गरीबों पर जुल्म करने का अफसोस है। मैं यह तो नहीं चाहता कि आठ आने से एक पाई भी ज्यादा वसूल करो, लेकिन दिलजोई के साथ तुम बेशी भी वसूल कर सकते हो। जो भूखों मरते हैं चिथड़े पहनकर और पुआल में सोकर दिन काटते हैं उनसे एक पैसा भी दबाकर लेना अन्याय है। जब हम और तुम दो-चार घंटे आराम से काम करके आराम से रहना चाहते हैं, जायदादें बनाना चाहते हैं, शौक की चीजें जमा करते हैं, तो क्या यह अन्याय नहीं है कि जो लोग स्त्री-बच्चों समेत अठारह घंटे रोज काम करें, वह रोटी-कपड़े को तरसें- बेचारे गरीब हैं, बेजबान हैं, अपने को संगठित नहीं कर सकते, इसलिए सभी छोटे-बड़े उन पर रोब जमाते हैं। मगर तुम जैसे सहृदय और विद्वान् लोग भी वही करने लगें, जो मामूली अमले करते हैं, तो अफसोस होता है। अपने साथ किसी को मत लो, मेरे साथ चलो। मैं जिम्मा लेता हूं कि कोई तुमसे गुस्ताखी न करेगा। उनके जख्म पर मरहम रख दो, मैं इतना ही चाहता हूं। जब तक जिएंगे, बेचारे तुम्हें याद करेंगे। सद्भाव में सम्मोहन का-सा असर होता है।
सलीम का हृदय अभी इतना काला न हुआ था कि उस पर कोई रंग ही न चढ़ता। सकुचाता हुआ बोला-मेरी तरफ से आप ही को कहना पड़ेगा।
'हां-हां, यह सब मैं कह दूंगा, लेकिन ऐसा न हो, मैं उधर चलूं, इधर तुम हंटरबाजी शुरू करो।'
'अब ज्यादा शर्मिंदा न कीजिए।'
'तुम यह तजवीज क्यों नहीं करते कि असामियों की हालत की जांच की जाय। आंखें बंद करके हुक्म मानना तुम्हारा काम नहीं। पहले अपना इत्मीनान तो कर लो कि तुम बेइंसाफी तो नहीं कर रहे हो- तुम खुद ऐसी रिपोर्ट क्यों नहीं लिखते- मुमकिन है हुक्कम इसे पसंद न करें, लेकिन हक के लिए कुछ नुकसान उठाना पड़े, तो क्या चिंता?'
सलीम को यह बातें न्याय-संगत जान पड़ीं। खूंटे की पतली नोक जमीन के अंदर पहुंच चुकी थी। बोला-इस बुजुर्गाना सलाह के लिए आपका एहसानमंद हूं और उस पर अमल करने की कोशिश करूंगा।
भोजन का समय आ गया था। सलीम ने पूछा-आपके लिए क्या खाना बनवाऊं-
'जो चाहे बनवाओ, पर इतना याद रखो कि मैं हिन्दू हूं और पुराने जमाने का आदमी हूं। अभी तक छूत-छात को मानता हूं।'
'आप छूत-छात को अच्छा समझते हैं?'
'अच्छा तो नहीं समझता पर मानता हूं।'
'तब मानते ही क्यों हैं?'
'इसलिए कि संस्कारों को मिटाना मुश्किल है। अगर जरूरत पड़े, तो मैं तुम्हारा मल उठाकर फेंक दूंगा लेकिन तुम्हारी थाली में मुझसे न खाया जाएगा।'

 

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