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मुंशी प्रेमचंद - निर्मला
निर्मला
इक्कीस
पेज- 67
तीन बजे जियाराम स्कूल से लौटा। निर्मला उसने आने की खबर पाकर विक्षिप्त की भांति उठी और उसके कमरे के द्वार पर आकर बोली-भैया, दिल्लगी की हो तो दे दो। दुखिया को सताकर क्या पाओगे?
जियाराम एक क्षण के लिए कातर हो उठा। चोर-कला में उसका यह पहला ही प्रयास था। यह कठारेता, जिससे हिंसा में मनोरंजन होता है अभी तक उसे प्राप्त न हुई थी। यदि उसके पास सन्दूकचा होता और फिर इतना मौका मिलता कि उसे ताक पर रख आवे, तो कदाचित् वह उसे मौके को न छोड़ता, लेकिन सन्दूक उसके हाथ से निकल चुका था। यारों ने उसे सराफें में पहुंचा दिया था और औने-पौने बेच भी डाला थ। चोरों की झूठ के सिवा और कौन रक्षा कर सकता है। बोला-भला अम्मांजी, मैं आपसे ऐसी दिल्लगी करुंगा? आप अभी तक मुझ पर शक करती जा रही हैं। मैं कह चुका कि मैं रात को घर पर न था, लेकिन आपको यकीन ही नहीं आता। बड़े दु:ख की बात है कि मुझे आप इतना नीच समझती हैं।
निर्मला ने आंसू पोंछते हुए कहा- मैं तुम्हारे पर शक नहीं करती भैया, तुम्हें चोरी नहीं लगाती। मैंने समझा, शायद दिल्लगी की हो।
जियाराम पर वह चोरी का संदेह कैसे कर सकती थी? दुनिया यही तो कहेगी कि लड़के की मां मर गई है, तो उस पर चोरी का इलजाम लगाया जा रहा है। मेरे मुंह मे ही तो कालिख लगेगी!
जियाराम ने आश्वासन देते हुए कहा- चलिए, मैं देखूं, आखिर ले कौन गया? चोर आया किस रास्ते से?
भूंगी- भैया, तुम चोरों के आने को कहते हो। चूहे के बिल से तो निकल ही आते हैं, यहां तो चारो ओर ही खिड़कियां हैं।
जियाराम- खूब अच्छी तरह तलाश कर लिया है?
निर्मला- सारा घर तो छान मारा, अब कहां खोजने को कहते हो?
जियाराम- आप लोग सो भी तो जाती हैं मुर्दों से बाजी लगाकर।
चार बजे मुंशीजी घर आये, तो निर्मला की दशा देखकर पूछा- कैसी तबीयत है? कहीं दर्द तो नहीं है? कह कहकर उन्होंने आशा को गोद में उठा लिया।
निर्मला कोई जवाब न दे सकी, फिर रोने लगी।
भूंगी ने कहा- ऐसा कभी नहीं हुआ था। मेरी सारी उर्म इसी घर मं कट गयी। आज तक एक पैसे की चोरी नहीं हुई। दुनिया यही कहेगी कि भूंगी का कोम है, अब तो भगेवान ही पत-पानी रखें।
मुंशीजी अचकन के बटन खोल रहे थे, फिर बटन बन्द करते हुए बोले- क्या हुआ? कोई चीज चोरी हो गयी?
भूंगी- बहूजी के सारे गहने उठ गये।
मुंशीजी- रखे कहां थे?
निर्मला ने सिसकियां लेते हुए रात की सारी घटना बयाना कर दी, पर जियाराम की सूरत के आदमी के अपने कमरे से निकलने की बात न कही। मुंशीजी ने ठंडी सांस भरकर कहा- ईश्वर भी बड़ा अन्यायी है। जो मरे उन्हीं को मारता है। मालूम होता है, अदिन आ गये हैं। मगर चोर आया तो किधर से? कहीं सेंध नहीं पड़ी और किसी तरफ से आने का रास्ता नहीं। मैंने तो कोई ऐसा पाप नहीं किया, जिसकी मुझे यह सजा मिल रही है। बार-बार कहता रहा, गहने का सन्दूकचा ताक पर मत रखो, मगेर कौन सुनता है।
निर्मला- मैं क्या जानती थी कि यह गजब टूट पड़ेगा!
मुंशीजी- इतना तो जानती थी कि सब दिन बराबर नहीं जाते। आज बनवाने जाऊं, तो इस हजार से कम न लगेंगे। आजकल अपनी जो दशा है, वह तुमसे छिपी नहीं, खर्च भर का मुश्किल से मिलता है, गहने कहां से बनेंगे। जाता हूं, पुलिस में इत्तिला कर आता हूं, पर मिलने की उम्मीद न समझो।
निर्मला ने आपत्ति के भाव से कहा- जब जानते हैं कि पुलिस में इत्तिला करने से कुद न होगा, तो क्यों जा रहे हैं?
मुंशीजी- दिल नहीं मानता और क्या? इतना बड़ा नुकसान उठाकर चुपचाप तो नहीं बैठ जाता।
निर्मला- मिलनेवाले होते, तो जाते ही क्यों? तकदीर में न थे, तो कैसे रहते?
मुंशीजी- तकदीर मे होंगे, तो मिल जायेंगे, नहीं तो गये तो हैं ही।
मुंशीजी कमरे से निकले। निर्मला ने उनका हाथ पकड़कर कहा- मैं कहती हूं, मत जाओ, कहीं ऐसा न हो, लेने के देने पड़ जायें।
मुंशीजी ने हाथ छुड़ाकर कहा- तुम भी बच्चों की-सी जिद्द कर रही हो। दस हजार का नुकसान ऐसा नहीं है, जिसे मैं यों ही उठा लूं। मैं रो नहीं रहा हूं, पर मेरे हृदय पर जो बीत रही है, वह मैं ही जानता हूं। यह चोट मेरे कलेजे पर लगी है। मुंशीजी और कुछ न कह सके। गला फंस गया। वह तेजी से कमरे से निकल आये और थाने पर जा पहुंचे। थानेदार उनका बहुत लिहाज करता था। उसे एक बार रिश्वत के मुकदमे से बरी करा चुके थे। उनके साथ ही तफ्तीश करने आ पहुंचा। नाम था अलायार खां।
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