मुंशी प्रेमचंद

वरदान

16 स्नेह पर कर्त्तव्य की विजय

पेज- 34

रोगी जब तक बीमार रहता है उसे सुध नहीं रहती कि कौन मेरी औषधि करता है, कौन मुझे देखने के लिए आता है। वह अपने ही कष्ट में इतना ग्रस्त रहता है कि किसी दूसरे के बात का ध्यान ही उसके हृदय में उत्पन्न नहीं होता; पर जब वह आरोग्य हो जाता है, तब उसे अपनी शुश्रष करनेवालों का ध्यान और उनके उद्योग तथा परिश्रम का अनुमान होने लगता है और उसके हृदय में उनका प्रेम तथा आदर बढ़ जाता है। ठीक यही श वृजरानी की थी। जब तक वह स्वयं अपने कष्ट में मग्न थी, कमलाचरण की व्याकुलता और कष्टों का अनुभव न कर सकती थी। निस्सन्देह वह उसकी खातिरदारी में कोई अंश शेष न रखती थी, परन्तु यह व्यवहार-पालन के विचार से होती थी, न कि सच्चे प्रेम से। परन्तु जब उसके हृदय से वह व्यथा मिट गयी तो उसे कमला का परिश्रम और उद्योग स्मरण हुआ, और यह चिंता हुई कि इस अपार उपकार का प्रति-उत्तर क्या दूँ ? मेरा धर्म था सेवा-सत्कार से उन्हें सुख देती, पर सुख देना कैसा उलटे उनके प्राण ही की गाहक हुई हूं! वे तो ऐसे सच्चे दिल से मेरा प्रेम करें और मैं अपना कर्त्तव्य ही न पालन कर सकूँ ! ईश्वर को क्या मुँह दिखाँऊगी ? सच्चे प्रेम  का कमल बहुधा कृपा के भाव से खिल जाया करता है। जहॉं, रुप यौवन, सम्पत्ति और प्रभुता तथा स्वाभाविक सौजन्य प्रेम के बीच बोने में अकृतकार्य रहते हैं, वहॉँ, प्राय: उपकार का जादू चल जाता है। कोई हृदय ऐसा वज्र और कठोर नहीं हो सकता, जो सत्य सेवा से द्रवीभूत न हो जाय।
कमला और वृजरानी में दिनोंदिन प्रीति बढ़ने लगी। एक प्रेम का दास था, दूसरी कर्त्तव्य की दासी। सम्भव न था कि वृजरानी के मुख से कोई बात निकले और कमलाचरण उसको पूरा न करे। अब उसकी तत्परता और योग्यता उन्हीं प्रयत्नों में व्यय होती थीह। पढ़ना केवल माता-पिता को धोखा देना था। वह सदा रुख देख करता और इस आशा पर कि यह काम उसकी प्रसन्न्त का कारण होगा, सब कुछ करने पर कटिबद्व रहता। एक दिन उसने माधवी को फुलवाड़ी से फूल चुनते देखा। यह छोटा-सा उद्यान घर के पीछे था। पर कुटुम्ब के किसी व्यक्ति को उसे प्रेम न था, अतएव बारहों मास उस पर उदासी छायी रहती थी। वृजरानी को फूलों से हार्दिक प्रेम था। फुलवाड़ी की यह दुर्गति देखी तो माधवी से कहा कि कभी-कभी इसमं पानी दे दिया कर। धीरे-धीरे वाटिका की दशा कुछ सुधर चली और पौधों में फूल लगने लगे। कमलाचरण के लिए इशारा बहुत था। तन-मन से वाटिका को सुसज्जित करने पर उतारु हो गया। दो चतुर माली नौकर रख लिये। विविध प्रकार के सुन्दर-सुन्दर पुष्प और पौधे लगाये जाने लगे। भॉँति-भॉँतिकी घासें और पत्तियॉँ गमलों में सजायी जाने लगी, क्यारियॉँ और रविशे ठीक की जाने लगीं। ठौर-ठौर पर लताऍं चढ़ायी गयीं। कमलाचरण सारे दिन हाथ में पुस्तक लिये फुलवाड़ी में टहलता रहता था और मालियों को वाटिका की सजावट और बनावट की ताकीद किया करता था, केवल इसीलिए कि विरजन प्रसन्न होगी। ऐसे स्नेह-भक्त का जादू किस पर न चल जायगा। एक दिन कमला ने कहा-आओ, तुम्हें वाटिका की सैर कराँऊ। वृजरानी उसके साथ चली।

 

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