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मुंशी प्रेमचंद
वरदान
4 एकता का सम्बन्ध पुष्ट होता है
पेज- 6
कुछ काल से सुवामा ने द्रव्याभाव के कारण महाराजिन, कहार और दो महरियों को जवाब दे दिया था क्योंकि अब न तो उसकी कोई आवश्यकता थी और न उनका व्यय ही संभाले संभलता था। केवल एक बुढ़िया महरी शेष रह गयी थी। ऊपर का काम-काज वह करती रसोई सुवामा स्वयं बना लेगी। परन्तु उस बेचारी को ऐसे कठिन परिश्रम का अभ्यास तो कभी था नहीं, थोड़े ही दिनों में उसे थकान के कारण रात को कुछ ज्वर रहने लगा। धीरे-धीरे यह गति हुई कि जब देखें ज्वर विद्यमान है। शरीर भुना जाता है, न खाने की इच्छा है न पीने की। किसी कार्य में मन नहीं लगता। पर यह है कि सदैव नियम के अनुसार काम किये जाती है। जब तक प्रताप घर रहता है तब तक वह मुखाकृति को तनिक भी मलिन नहीं होने देती परन्तु ज्यों ही वह स्कूल चला जाता है, त्यों ही वह चद्दर ओढ़कर पड़ी रहती है और दिन-भर पड़े-पड़े कराहा करती है।
प्रताप बुद्विमान लड़का था। माता की दशा प्रतिदिन बिगड़ती हुई देखकर ताड गया कि यह बीमार है। एक दिन स्कूल से लौटा तो सीधा अपने घर गया। बेटे को देखते ही सुवामा ने उठ बैठने का प्रयत्न किया पर निर्बलता के कारण मूर्छा आ गयी और हाथ-पांव अकड़ गये। प्रताप ने उसं संभाला और उसकी और भर्त्सना की दृष्टि से देखकर कहा-अम्मा तुम आजकल बीमार हो क्या? इतनी दुबली क्यों हो गयी हो? देखो, तुम्हारा शरीर कितना गर्म है। हाथ नहीं रखा जाता।
सुवाम ने हंसने का उद्योग किया। अपनी बीमारी का परिचय देकर बेटे को कैसे कष्ट दे? यह नि:स्पृह और नि:स्वार्थ प्रेम की पराकाष्टा है। स्वर को हलका करके बोली नहीं बेटा बीमार तो नहीं हूं। आज कुछ ज्वर हो आया था, संध्या तक चंगी हो जाऊंगी। आलमारी में हलुवा रखा हुआ है निकाल लो। नहीं, तुम आओ बैठो, मैं ही निकाल देती हूं।
प्रताप-माता, तुम मुझ से बहाना करती हो। तुम अवश्य बीमार हो। एक दिन में कोई इतना दुर्बल हो जाता है?
सुवाता- (हंसकर) क्या तुम्हारे देखने में मैं दुबली हो गयी हूं।
प्रताप- मैं डॉक्टर साहब के पास जाता हूं।
सुवामा- (प्रताप का हाथ पकड़कर) तुम क्या जानों कि वे कहां रहते हैं?
ताप- पूछते-पूछते चला जाऊंगा।
सुवामा कुछ और कहना चाहती थी कि उसे फिर चक्कर आ गया। उसकी आंखें पथरा गयीं। प्रताप उसकी यह दशा देखते ही डर गया। उससे और कुछ तो न हो सका, वह दौड़कर विरजन के द्वार पर आया और खड़ा होकर रोने लगा।
प्रतिदिन वह इस समय तक विरजन के घर पहुंच जाता था। आज जो देर हुई तो वह अकुलायी हुई इधर-उधर देख रही थी। अकस्मात द्वार पर झांकने आयी, तो प्रताप को दोनों हाथों से मुख ढांके हुए देखा। पहले तो समझी कि इसने हंसी से मुख छिपा रखा है। जब उसने हाथ हटाये तो आंसू दीख पड़े। चौंककर बोली- लल्लू क्यों रोते हो? बता दो।
प्रताप ने कुछ उत्तर न दिया, वरन् और सिसकने लगा।
विरजन बोली- न बताओगे! क्या चाची ने कुछ कहा ? जाओ, तुम चुप नही होते।
प्रताप ने कहा- नहीं, विरजन, मां बहुत बीमार है।
यह सुनते ही वृजरानी दौड़ी और एक सांस में सुवामा के सिरहाने जा खड़ी हुई। देखा तो वह सुन्न पड़ी हुई है, आंखे मुंद हुई हैं और लम्बी सांसे ले रही हैं। उनका हाथ थाम कर विरजन झिंझोड़ने लगी- चाची, कैसी जी है, आंखें खोलों, कैसा जी है?
परन्तु चाची ने आंखें न खोलीं। तब वह ताक पर से तेल उतारकर सुवाम के सिर पर धीरे-धीरे मलने लगी। उस बेचारी को सिर में महीनों से तेल डालने का अवसर न मिला था, ठण्डक पहुंची तो आंखें खुल गयीं।
विरजन- चाची, कैसा जी है? कहीं दर्द तो नहीं है?
सुवामा- नहीं, बेटी दर्द कहीं नहीं है। अब मैं बिल्कुल अच्छी हूं। भैया कहां हैं?
विरजन-वह तो मेर घर है, बहुत रो रहे हैं।
सुवामा- तुम जाओ, उसके साथ खेलों, अब मैं बिल्कुल अच्छी हूं।
अभी ये बातें हो रही थीं कि सुशीला का भी शुभागमन हुआ। उसे सुवाम से मिलने की तो बहुत दिनों से उत्कष्ठा थी, परन्तु कोई अवसर न मिलता था। इस समय वह सात्वना देने के बहाने आ पहुंची।विरजन ने अपन माता को देखा तो उछल पड़ी और ताली बजा-बजाकर कहने लगी- मां आयी, मां आयी।
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