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मुंशी प्रेमचंद
वरदान
4 एकता का सम्बन्ध पुष्ट होता है
पेज- 7
दोनों स्त्रीयों में शिष्टाचार की बातें होने लगीं। बातों-बातों में दीपक जल उठा। किसी को ध्यान भी न हुआकि प्रताप कहां है। थोड़ देर तक तो वह द्वार पर खड़ा रोता रहा,फिर झटपट आंखें पोंछकर डॉक्टर किचलू के घर की ओर लपकता हुआ चला। डॉक्टर साहब मुंशी शालिग्राम के मिञों में से थे। और जब कभी का पड़ता, तो वे ही बुलाये जाते थे। प्रताप को केवल इतना विदित था कि वे बरना नदी के किनारे लाल बंगल में रहते हैं। उसे अब तक अपने मुहल्ले से बाहर निकलने का कभी अवसर न पड़ा था। परन्तु उस समय मातृ भक्ती के वेग से उद्विग्न होने के कारण उसे इन रुकावटों का कुछ भी ध्यान न हुआ। घर से निकलकर बाजार में आया और एक इक्केवान से बोला-लाल बंगल चलोगे? लाल बंगला प्रसाद स्थान था। इक्कावान तैयार हो गया। आठ बजते-बजते डॉक्टर साहब की फिटन सुवामा के द्वार पर आ पहुंची। यहां इस समय चारों ओर उसकी खोज हो रही थी कि अचानक वह सवेग पैर बढ़ाता हुआ भीतर गया और बोला-पर्दा करो। डॉक्टर साहब आते हैं।
सुवामा और सुशीला दोनों चौंक पड़ी। समझ गयीं, यह डॉक्टर साहब को बुलाने गया था। सुवामा ने प्रेमाधिक्य से उसे गोदी में बैठा लिया डर नहीं लगा? हमको बताया भी नहीं यों ही चले गये? तुम खो जाते तो मैं क्या करती? ऐसा लाल कहां पाती? यह कहकर उसने बेटे को बार-बार चूम लिया। प्रताप इतना प्रसन्न था, मानों परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया। थोड़ी देर में पर्दा हुआ और डॉक्टर साहब आये। उन्होंने सुवामा की नाड़ी देखी और सांत्वना दी। वे प्रताप को गोद में बैठाकर बातें करते रहे। औषधियॉ साथ ले आये थे। उसे पिलाने की सम्मति देकर नौ बजे बंगले को लौट गये। परन्तु जीर्णज्वर था, अतएव पूरे मास-भर सुवामा को कड़वी-कड़वी औषधियां खानी पड़ी। डॉक्टर साहब दोनों वक्त आते और ऐसी कृपा और ध्यान रखते, मानो सुवामा उनकी बहिन है। एक बार सुवाम ने डरते-डरते फीस के रुपये एक पात्र में रखकर सामने रखे। पर डॉक्टर साहब ने उन्हें हाथ तक न लगाया। केवल इतना कहा-इन्हें मेरी ओर से प्रताप को दे दीजिएगा, वह पैदल स्कूल जाता है, पैरगाड़ी मोल ले लेगा।
विरजन और उनकी माता दोनों सुवामा की शुश्रूषा के लिए उपस्थित रहतीं। माता चाहे विलम्ब भी कर जाए, परन्तु विरजन वहां से एक क्षण के लिए भी न टलती। दवा पिलाती, पान देती जब सुवामा का जी अच्छा होता तो वह भोली-भोली बातों द्वारा उसका मन बहलाती। खेलना-कूदना सब छूट गया। जब सुवाम बहुत हठ करती तो प्रताप के संग बाग में खेलने चली जाती। दीपक जलते ही फिर आ बैठती और जब तक निद्रा के मारे झुक-झुक न पड़ती, वहां से उठने का नाम न लेती वरन प्राय: वहीं सो जाती, रात को नौकर गोद में उठाकर घर ले जाता। न जाने उसे कौन-सी धुन सवार हो गयी थी।
एक दिन वृजरानी सुवामा के सिरहाने बैठी पंखा झल रही थी। न जाने किस ध्यान में मग्न थी। आंखें दीवार की ओर लगी हुई थीं। और जिस प्रकार वृक्षों पर कौमुदी लहराती है, उसी भांति भीनी-भीनी मुस्कान उसके अधरों पर लहरा रही थी। उसे कुछ भी ध्यान न था कि चाची मेरी और देख रही है। अचानक उसके हाथ से पंखा छूट गया। ज्यों ही वह उसको उठाने के लिए झुकी कि सुवामा ने उसे गले लगा लिया। और पुचकार कर पूछा-विरजन, सत्य कहो, तुम अभी क्या सोच रही थी?
विरजन ने माथा झुका लिया और कुछ लज्जित होकर कहा- कुछ नहीं, तुमको न बतलाऊंगी।
सूवामा- मेरी अच्छी विरजन। बता तो क्या सोचती थी?
विरजन-(लजाते हुए) सोचती थी कि.....जाओ हंसो मत......न बतलाऊंगी।
सुवामा-अच्छा ले, न हसूंगी, बताओ। ले यही तो अब अच्छा नही लगता, फिर मैं आंखें मूंद लूंगी।
विरजन-किस से कहोगी तो नहीं?
सुवामा- नहीं, किसी से न कहूंगी।
विरजन-सोचती थी कि जब प्रताप से मेरा विवाह हो जायेगा, तब बड़े आनन्द से रहूंगी।
सुवामा ने उसे छाती से लगा लिया और कहा- बेटी, वह तो तेरा भाई हे।
विरजन- हां भाई है। मैं जान गई। तुम मुझे बहू न बनाओगी।
सुवामा- आज लल्लू को आने दो, उससे पूछूँ देखूं क्या कहता है?
विरजन- नहीं, नहीं, उनसे न कहना मैं तुम्हारे पैरों पडूं।
सुवामा- मैं तो कह दूंगी।
विरजन- तुम्हे हमारी कसम, उनसे न कहना।
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