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भागवत यंत्र
सौरभ कुमार
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भागवत यंत्र
१. भागवत यंत्र
आगे बढ़ने के लिये नि:संशय होना चाहिए। अपने विषय पर श्रद्धा होनी चाहिए। लोग कहते है कर्म के उपरान्त मिलने वाले भावी फल से बल मिलना चाहिए ताकि कर्म चलता रहे। एक राह भगवान में आस्था से संयोजित होकर कर्म करने का है तथा अपने आप को भागवत यंत्र के रूप में पूर्ण बनाने की प्रभु से प्रर्थना है।
२. जीवन क्षणभंगुर है। फिर भी मोह है। मोह इस कारण है क्योंकि आत्मा पर विश्वास नहीं है। आत्मा के ज्ञान की उपलब्धि नहीं है। फिर हम शरीर पर जीना चाहते हैं। क्षणभंगुरता को नकारना चाहते हैं, भुलाना चाहते हैं। हम इस क्षणभंगुरता के जगत से उठ कर आत्मा के जगत में जाने से डरते हैं, बचते हैं।
क्षणभंगुरता के जगत से उठना आसान भी नहीं है। इसी कारण तो साधना करनी पडती है। स्थिति का सातत्य ध्यान, स्मरण जरूरी है। रिविजन का महत्व अध्ययन में हीं नहीं, रिलिजन में भी महत्व है।
३. मनुष्य केन्द्रिय तौर पर सच्चा हो सकता है फिर भी ऐसी अनेक वस्तुएँ उसमें हो सकती है, जिन्हें परिवर्तित करना जरूरी हो इससे पूर्व कि अनुभूति प्रारंभ हो सके।- श्री अरविन्द
अनुभूति प्रारंभ होने के पहले परिवर्त्तन पर जाना होता है और उसमें अभी प्रक्रिया काफी स्थूल और ढुलमुल है। साधना के लिये एकांत मे भी व्यवस्थित होने के साथ शब्द-चयन या मौन का उपयोग होता है। परिवर्त्तन एकाएक तो नहीं होता। मन:स्थिति के विकास में धीरे-धीरे सुदृढ़ होते दृढ़ता आती है। हमारा शारीरिक या सांसारिक मन एकाएक आध्यात्मिक नहीं हो पाता जबतक १. घटना न घटे २. लगातार सातत्य अभ्यास न किया जाये। दो में से एक तरीका का एप्लीकेशन होना जरूरी होता है।१. पर मानव वश नहीं होता क्योंकि वह बाहरी है। २. मानव साधता है क्योंकि वह आंतरिक है।
१.संन्यास २. चुप रहना या मौन
ये दोनों चीजें काफी कठिन है। अपने वर्त्तमान में रहना भी कठिन है तथा मौन या मनन भी। लोग मूक को मौन से आसान मानते हैं। मौन या मनन नि:संदेह अच्छी या ऊपर की स्थिति है परंतु मूक या चुप रहना भी काफी कठिन है।
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