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धर्म और अध्यात्म

सौरभ कुमार

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धर्म और अध्यात्म

धर्म या अध्यात्म यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। मेरा मानना है कि धर्म समाज के लिए उपयोगी है, अध्यात्म व्यक्ति के लिए। धर्म के गर्भ से अध्यात्म का विकास होता है। कर्म, ज्ञान, भक्ति धर्म के श्वाँस हैं। इनके बिना धर्म जीवित नहीं रह सकता। अध्यात्म कई प्रकार के हैं। तीनों रह भी सकते हैं और नहीं भी। आज का धर्म मानव धर्म है। ईश्वर या सृष्टि का सृजनकर्त्ता गौण है। मानव प्रमुख। अगर मानव के भीतर ईश्वर की अभिव्यक्ति है तो आज मानव का केन्द्र में होना सिर्फ सृष्टि के सृजनकर्त्ता का गौण होना नहीं है। यह मानव के भीतर की संभावनाओं की खोज भी है। जिसमें पहल मानव को हीं करनी है।

श्रीअरविंद से तात्विक रूप से सहमति है कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड में चेतना व्याप्त है। अभी का मानव धर्म एकांगी है। आज के समय का चिंतक न तो अरविंद हो सकते हैं और न गांधी। आज के समय का चिंतक आज का हीं व्यक्ति हो सकता है। पूरा समाज कर्मविहीन नहीं हो सकता। अत: वह धार्मिक होता है। अध्यात्मिक व्यक्ति कर्मकुशल हो भी सकता है और नहीं भी। यह प्रश्न हो सकता है कि गांधी धार्मिक थे या आध्यात्मिक।
काम, क्रोध,आलस्य ये त्रिगुण एक दूसरे पर अवलंबित हैं। कामनायें क्षोभ पैदा करती है। अत: निराशा के भाव पैदा होते हैं। आत्मिक शक्ति से हीं संसार का सामना किया जाता है। रचनात्मक कार्यो से सर्जनात्मकता पैदा होती है। अध्यात्म में साधना जरूरी है।
यह सही है कि आज की दुनिया की रफ्तार तेज है। गाड़ियों की भी रफ्तार तेज होती है परंतु वे भी लगातार नहीं चलती रहतीं। उन्हें भी रूकना  पड़ता है। उनका भी लक्ष्य होता। हमेशा चला नहीं जाता कहीं न कहीं विश्राम आता है। समाज में भी विश्राम की अवस्था आती है, वहीं साहित्यकार, दार्शिनिक, कलाकार की आवश्यकता पड़ती है। समाज की बहती धारा का ज्ञान तथा आने वाले समाज की पहचान की दूरदृष्टि हीं उच्च चीज पैदा कर सकती है।

महान होना क्या बाह्य हीं होता है? क्या आंतरिक होना नहीं होता? क्या आंतरिक महानता के स्वप्न को छोड़ देना चाहिए। महान सिर्फ वे हीं नहीं होते जिन्होंने दर्शन पे पृष्ठ के पृष्ठ भर डाले। ईश्वर की आंतरिक अनुभूति कहीं ज्यादा महान है। साहित्य या दर्शन के मुकाबले संगीत में कहीं ज्यादा ईश्वर की अनुभूति है। आत्मा का संबंध ईश्वर के निकट होने की अनुभूति, संगीत से हीं संभव है।

दु:ख ईश्वर का वरदान नहीं माना जा सकता। परंतु जब हम दु:ख में आत्ममंथन करते हैं तब हीं सत्य का वास्तविक स्वरूप का आभास मिलने लगता है और इसी सत्यता के कारण दु:ख को ईश्वर का वरदान कहा जा सकता है तथा कहना भी चाहिए।   

 

  सौरभ कुमार का साहित्य  

 

 

 

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