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गृहप्रवेश

सौरभ कुमार

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गृहप्रवेश

बच्चे हीं सिर्फ बच्चे नहीं होते हैं, जिदंगी को बसाने के लिए बनाया गया घर भी अपना बच्चा होता है। आज क्षितिज की माँ शहर में अपने बेटे के बनाये अतिसाधारण से दिखने लायक मकान में गृहप्रवेश की पूजा करने के लिए जा रही है। जिंदगी में लगभग नि:शेष हो चुके रस के बीच वह जिस प्रकार जी रही थी उसमें कहा नहीं जा सकता है वह कितना रस अपने लिये खींच पायेगी। जिंदगी के मधुर आदर्श के बीच जिस प्रकार उसने जीवन के सत्य को जाना उसका स्वाद नि:संदेह अपने यथार्थ रूप में तिक्त था। वह बस को पकड़ने के लिए पैदल पति के पीछे चल रही थी। अक्सर वह पति से पीछे हो जाती थी। वह सोचती इन्हें पता नहीं किस बात की जल्दी रहती है। क्या इन्हें मुझे जान से मारने में मजा मिलता है। आज भी उसके ठेहुने तेज चलने में असमर्थ है, दिल की धड़कन बढ़ी हुई है पर पता नहीं उसके कदम हीं कैसे तेजी से पड़ते जा रहे हैं। उस का दिल आज भी शिकायत से भरा है जिस वजह ने उसे एक शुष्क सा माँ बना दिया। उसके साँवले से दिखने वाले चेहरे में बुझी झुरियों ने उसे और थकी बना दिया है। अभाव की जिंदगी कब माँग को नकारते नकारते आदत और फिर विचार का हीं रूप ले लेता है उसे पता नहीं चलता। वह आकर बने घर को देखती है। उसकी ममता ने जैसा घर उसके बनाये बच्चे के घर के लिए बनाया था वह वैसा बिल्कुल नहीं था। महानगर की चकाचौंध में वह घर किसी तरह टिमटिमा रहा था। पंडित आ चुके थे, क्षितिज ने अपने पिता को हीं गृहप्रवेश की पूजा पर बैठाया था। वे पूजा कर रहे थे। उन्हें संतोष था। वे दुनियादार आदमी थे। वे जानते थे अपने शौक के पूरा करने के अलावा कुछ जोड़ पाना, कुछ निर्माण कर पाना कितना कठिन होता है। वे खुश थे। उनकी आने वाली पीढ़ी के लिए महानगर का वातावरण उपलब्ध होने जा रहा था। जिंदगी से शिकवा तो उन्हें था। परंतु उन्हें यह भी लग रहा था आगे का भविष्य सुधर जाये। अपने बेटे के एक छोटे से व्यवसाय कर इसे भी बनाने की कीमत वो जानते थे।

आम के पल्लव का मंगल सूत्र घर के चारों ओर बांधा जा चुका था। क्षितिज आने वाले अतिथि का स्वागत कर रहा था। उसके लिए अभी व्यवस्था की चिंता महत्वपूर्ण थी। अब तो उसका यह घर रूपी बच्चा बड़ा हो गया था। वैसे हीं जैसे बच्चा जब बड़ा हो जाये तो हम थोड़ा नि:संग से हो जाते हैं। हम भी उनके साथ फुर्सत में निश्चिंत हो लेना चाहते हैं। जब मकान बन रहा था तो वह बन रहा घर उस छोटे शिशु की तरह था जिसे हमारे ज्यादा ध्यान की जरूरत होती है। उसकी बीबी आनेवाले लोगों के लिए भोजन की तैयारी को देख रही थी। हाँ ये बात और है कि बीच-बीच में उसकी खुली हँसी भी दिख जा रही थी। और बच्चे वो तो बच्चे हीं होते है। आगे रखे बालू हीं उनकी दुनिया बनी हुई थी। और ये छोटे से बालू की ढ़ेर की दुनिया हीं सबसे बड़ी दुनिया थी। जो मेहमान अभी आये थे उनके चेहरे पर मुस्कुराहट बनी हुई थी। देर से बैठे हुए लोग की मुस्कुराहट समाप्त होने पर थी। वे अब आने के सामाजिक शिष्टाचार को जल्द पूरा होना चाह रहे थे। हाँ कुछ ऐसे लोग भी थे जिनकी खुशी वास्तविक थी।

पूजा समाप्त हो चुका था। मंगल कलश के जल को घर के प्रांगण में छींटा जाना था। क्षितिज की माँ उठ चुकी थी। थकावट उसकी साफ देखी जा सकती थी। उसके आँख को देख कर उसे अगली बार देख पाने का संदेह हो सकता था। जहाँ युवा आदमी भी एक दिमाग के नस फट जाने से बिना आहट दिये गुजर जा सकता है वहाँ तो उसकी आँखे भी बुझी हुई थी। उसने जल में आम के पत्ते को ड़ाला और जब जल आम के पत्ते के साथ घर पर पड़ने को निकला तो पता नहीं वात्सल्य की कौन सी शक्ति उसके हाथ से उसके आँख में आ चुकी थी। उसके आँख की उस अग्नि को ना देख पाना एक सत्य को देख पाने से वंचित हो जाना था। उसके जबड़े में कसावट आ चुकी थी। वह घर के हर हिस्से में जा जाकर उस जल का अर्पण कर रही थी। वह अब वही पुरानी वात्सल्य की माँ बन चुकी थी। जो पहले दिन की भी नहीं, गर्भ में पहली धड़कन के साथ आकांक्षा की नवयुवती से एक स्त्री माँ बन जाती है। वह जल के सहारे अपने फैले हुये गोद की सुरक्षा हीं अपने संतान के लिये कर रही थी। वह अब उस मकान के सहारे हीं फिर से अपने संतान को बढ़ाने वाली थी। उसके वात्सल्य का स्थायी भाव फिर से रस रूप में जीवंत हो उठा था। कहते हैं स्थायी भाव अपने विरोधी सभी भाव को दबाकर हीं पूर्ण होता है। उसे उस समय देखकर उस चिड़िया का निश्चय जीवंत हो उठता है जिसका बच्चा समुद्र के जल में डूब गया था और न्याय ना मिलने पर वह अपने चोंच में जल भरकर सागर को सूखा देना चाहती थी। कहते है बाद में वो सूर्य से एकाकार हो गई और वो आज भी समुद्र को भाप बना कर सूखाना नहीं भूलती। उस समय में वह भी वही चिड़िया बन जाना चाहती थी।

गृहप्रवेश के समय कम से कम पाँच लोग का देवता के रूप में प्रसाद ग्रहण और उनका जूठन गिरना अनिवार्य था। आये लोग मिष्ठान को पाने में लगे हुये थे। क्षितिज की माँ अब पूरी तरह से थकी जा चुकी थी।


 

 

  सौरभ कुमार का साहित्य  

 

 

 

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