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जले लौ मन के दीये में

सौरभ कुमार

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जले लौ मन के दीये में

जले लौ मन के दीये में
दूर तमस हो मन का
'अस्ति'- 'त्व' है सत्य
परंतु वही अस्मिता बाँधती
दूसरे अन्य अस्ति-त्व से
रूप धर कर अस्मिता का
दीये के लौ रहती जलती तब भी
परंतु मन नहीं देखता उधर
बढ़ जाता वह अस्ति-त्व के
वन में दिखता तमस

जले लौ मन के दीये में
सत्य भीतर है परंतु वही
सत्य बाहर-भीतर भी है
क्योंकि सत्य सत्य है
बाहर-भीतर नहीं है।
सत्य पाया जाने का
नाम है। बिना पाये
सत्य सत्य रूप में
नहीं भासता। अस्ति-त्व
हो जाता है अस्मिता।
मार्ग भीतर जाना भी
नहीं है। शायद कुछ
होने न होने से परे
एक क्षण रूक जाना
हीं है साक्षात्कार।

त्व का लोप होना हीं
लोप है तमस और
अस्मिता का शायद।
जलना लौ मन के दीये
में शायद। शायद।

 

 

  सौरभ कुमार का साहित्य  

 

 

 

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