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खिचड़ी व्रत उपाय कथा
सौरभ कुमार
(Copyright © Saurabh Kumar)
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खिचड़ी व्रत उपाय कथा
आज का दिन है सोमवार। शनिवार का भांड हीं अभी है धोना। उसके लगे बाकी के भोजन को उसके हीं स्वामी का जीव अर्थात कुत्ता उसे चाट रहा है। अब यहाँ भ्रमवश संदेहवश होकर यह शक नहीं करना कि कुत्ता भी मैं हीं हूँ। कुत्ता तो कुत्ता हीं है। मैं तो कर्म-फल का दास भोक्ता हीं हूँ।
पहले कौन सी कथा सुनोगे। मेरी या कुत्ते की या खिचड़ी की। मेरी कथा से ज्यादा रोचक कथा तो तुम्हें खिचड़ी की लगेगी। आ रही है तुम्हें मुँह में पानी। पर मुँह बंद ही रखो।
कुत्ते तथा उसके स्वामी की कथा पहले सुनाया तो बहुत लंबी हो जायेगी बाबा। और तुम जैसे वक्त के बंधे के पास इतना फालतू का समय कहाँ। और जो खिचड़ी कथा में न समाये वो भी आज के युग की कथा हुई भला।
तो लो और खिचड़ी व्रत उपाय कथा हीं सुनो। लेकिन इस कथा को सुनने से पहले यह याद रखना कि तुम नमक तो सोमवार से शनिवार तक हीं खाओगे। वर्ना तुम्हारा भांड भी इसी तरह सोमवार तक पड़ा रहेगा। रविवारी करना एवं नमक से परहेज करना।
तो कथा यों शुरू हुई-------------
मैं भाइयों में बड़ा था। सबसे बड़ा ये जरूरी नहीं है। अर्थात मुझसे छोटे भी भाई थे। जो मेरे बाराती में खुद जाग-जाग कर उपद्रवी बारातियों को खिचड़ी ना मिलने पर मिठाई-पान-पत्ते, तमाशे दिखा और खिला रहे थे। मैं तो मड़वा पर हीं झपकी ले रहा था और लेता भी क्यूँ नहीं? एक तो आशिकाना संगीत, दूसरे पंडित का स्वस्ति वाचन मुझे जिंदगी के जन्नत होने का भान हो रहा था। स्वप्न की झलकी भी इसे हीं आगे बढ़ा रही थी। मैं भी इसे हीं जागरण समझ झपकी ले लेता था। समझता था अब जन्नत शुरू हुई कि तब शुरू हुई। परंतु जन्नत थी जो जितनी भी आगे बढ़ती कहती थी शुरू अब होनी है। तो आखिर जन्नत थी कौन भला!
इतना भी नहीं समझे। जन्नत मेरी महबूबा थी भाई साहब। इसमें क्या आश्चर्य। महबूबा महबूबा हो ये क्यूँ जरूरी है? हमारी श्रीमती महबूबा हीं जन्नत थीं। अगर थीं तो यहीं नही तो जगजननी भवानी त्रिपुर सुंदरी भी नहीं ढूँढ सकती। हो तो हो लेकिन एक शादीशुदा पति पत्नी के होते हुए कुछ कहे तो समझदार कैसा।
तो भई बात ये हुई कि हमारी महबूबा (इनसे पहले किसी लड़की ने हमें घास जो नहीं डाला था सो ये अरमान भी इन्हीं पर टिका था) अपने जन्नत में हमें लेकर आई। कब लाई ये भी जान लो नहीं तो कथा का मर्म भी कभी समझ नहीं पाओगे। हमारा ब्याह तो शुरू हुआ था बृहस्पतिवार को। सनातन परंपरा से हमारा बड़ा दिन तो यही है। मैंने सोचा शादी जब बड़ा दिन को है तो शुभ हनीमून जरूर शुक्रवार को होगा। मेरी लक्ष्मी मेरे घर में मेरे पास को शुक्रवार को होगी। वाह खुदा का भी शुक्र है जो उसने इस दिन का नाम क्या शुक्रवार रखा है। परंतु बच्चू यहीं तो मार खा गये। ब्याह दिन को नहीं होना था। दिन बड़ा था मगर रात तो सबसे छोटी थी। आलसी पंडितों ने कब का सबेरा कर दिया। सास जी आईं। तो हमने चरण छूये। चिंरजीवी का (सदा जीते रहने का) आशीर्वाद दिया। विवाह को रात्रि तक के लिए टाल दिया। मुझे मँड़वे पर हीं ब्रह्मनिष्ठ भाव से एक चुल्लू पानी पीकर रात्रि तक की प्रतिक्षा करने को कहा। खैर सारी दुनिया की दुश्मनी एक तरफ, सूर्य देवता कृपालु थे। वो जल्दी अस्तंगत हो गए। शुक्रवार को प्यारा हनीमून न सही परंतु शनिवार की सुबह तक हमारा ब्याह हो गया।
हमारा घर दूर था। बैलगाड़ी से ले जाना था। मकान भी जीर्ण-शीर्ण था। रहने से पहले मरम्त करना पड़ता। यहाँ तो अपनी सालियों के साथ राजमहल का परम वैभव था। वैसे भी रविवार को कन्या मार्ग में तो रह नहीं सकती थी। रविवार को लड़की की विदाई और वह घर में प्रवेश कैसे संभव था। शास्त्र वचन जो ठहरा। इससे संतोष न हो तो सुनो सवाथ के बारे में "यह प्रभु के आराम का दिन है, छ: दिन प्रभु ने कार्य अर्थात सृष्टि किया। अंत में उसने मनुष्य पैदा किया और सातवें दिन रविवार को आराम किया। अत: यह मनुष्यों के भी आराम का दिन है।"
तो अपनी जन्नत में हम अपनी महबूबा लक्ष्मी के साथ शनिवार के दिन थे। सूर्य मकर में पहुँचने को था। चाँद भी पूर्ण होने को था। मैं ज्योतिषी नहीं था। इसका मतलब न समझा। उन्होंने हमें प्यार से बैठाया। हमारे पैर भी दबाये। हमारे खाने की इच्छा को ध्यान में रखा। हमारे भूख का सम्मान किया। क्या खाना बनाऊँ ये पूछा। हमनें भी हसरतें बनायी। सहसा वो चौंक पड़ी। प्रति पल उत्पन्न मति को समय का ध्यान आया। कहा- आज तो शनिवार है। रविवार आराम का दिन है। सारे काम शनिवार तक पूर्ण हो जाने चाहिए। परमेश्वर की आज्ञा है। सप्ताह के खत्म होते तक। शनिवार तक या शनिवार्य को अनिवार्यत: खिचड़ी खा हीं लेनी है। और वो टूट पड़ीं। झटपट चूल्हा जलाया और लगी ’मुदगौदनं’ तैयार करने। मकरचाँदनी शुरू गई। आँख खुली है। सोमवार है। भांड है, कुत्ता है, खिचड़ी है, कथा सत्य है। अब तो यही कहना है ’इति श्री खिचड़ी व्रत उपाय कथा’।
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