लक्ष्मीभारत के सीधे-साधे गाँव में लक्ष्मी पूजा का बहुत महत्व है। यह और बात है कि हमें यह शुभ-लाभ के नीचे हीं मिलता है। सरस्वती की कद्र न हो यह बात नहीं है। पढाई की भी कद्र है पर यह सरस्वती ज्यादा पुस्तक की न होकर वाचिक हीं है जिसे कभी-कभी कम पढ़ी लड़की सुनकर हीं गाँठ बाँध लेती है। पुरूष सदियों से स्त्री पूजक हैं। उन्होंने मातृ-पूजा सीखा सो माँ की ममता छोड़ अगर स्त्री के दूसरे रूप को पूजनीय न सही अगर आदरणीय भी न समझा तो उन्हें कहाँ लें दोष देना चाहिए। अगर त्रिभुवन ने लक्ष्मी के आराधना में स्त्री को बाधा होते देख अगर मारकर उसका मुँह को फुला हीं दिया तो इसमें तो उसकी मर्दानगी हीं थी। लेकिन स्त्री तो उसमें कसाई हीं देख रही थी। बात इतनी थी कि वह माँ-बाबूजी से अलग नहीं जाना चाह रही थी और खुद त्रिभुवन को अपने माँ-बाप से अलग जाने में कोई बाधा नहीं दिखती थी। ऐसी बात नहीं कि लक्ष्मी अपने सास-ससुर से कभी दुखी न रही हो पर औरत के भीतर पड़ी गाँठ उसे एक सीमा के बाद अपने कर्तव्य मार्ग पर ढ़केल देती है। लक्ष्मी अपने ससुर के पहले पत्नी से उत्पन्न इकलौती संतान की बहू थी। वह भाभी थी। उसके तीन छोटे-छोटे देवर थे। वह कभी नहीं समझ पाती थी रिश्ते तो दो लोग के मध्य होते हैं उन्हें तीसरे बिन्दू डाल कर हीं क्यों देखना चाहिए? गाँव की हवा स्वास्थ्यवर्द्धक होती है। और कहो तो बुद्धिवर्द्धक भी। इतने बुद्धिवर्द्धक हितू का हवा लगे तो अपने भले-बुरे का पहचान न होता तो त्रिपुरारी को भला कब होता! चालीस बीघे जमीन का अगर बँटवारा आगे होता तो उसे दस बीघे हीं मिलते। लेकिन अगर वह माँ-बाबूजी से हीं बँट जाए तो वह सीधे-सीधे बीस बीघे का मालिक बन सकता है क्योंकि वह अपने पिता की दूसरी पत्नी का इकलौता बेटा है। परतुं यह बात पत्नी नहीं मानती। नाम तो लक्ष्मी है उसे तो और सीता की तरह उसके पीछे-पीछे हीं चलना चाहिए था। पर औरत जात, बुद्धि घुट्टी से ऊपर आयेगी हीं नहीं। वह धन लक्ष्मी को भी अपने माँ- बाबूजी से ऊपर रखे हुए हैं और अपने पति का भी साथ छोड़ने के लिए भी तैयार हो गई। मार पे मार खाती गई और रोना-धोना तो छोड़ एक आँसू तक नहीं लाई। विधवा होना बुरा होता है। सुहागन होने के बाद विधवा की तरह पतिविहीन होना और बुरा होता है। मर्द के श्रृंगार का पता नहीं चलता। परंतु स्त्री का छिप नहीं पाता। उसका मुख हीं उसके पति के दूरी को पता देता है। उसके पति से अलग रहते हुए छ: महीने हो गए। वह माँ-बाबूजी के साथ रह रही है परंतु साथ तो पति का हीं होता है। लेकिन कौन कहता है तपस्या कभी फलीभूत होता हीं नहीं है। आज उसका पति भी लौट आया है। संभवत: ज्यादा स्वस्थ होकर। आज माँ-बाबूजी नहीं हैं पर पति खुद अपने छोटे भाई से बिना सलाह लिए कुछ नहीं करता।
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