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ललिता

सौरभ कुमार

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प्रेम समस्या नहीं है, प्रेम के अवलंबन को पा लेने के आग्रह में है

ललिता

तृष्णा क्या इतनी बड़ी चीज है जिसका अवरोध चिंतन को हीं विकृत कर दे। हम जहाँ है वहाँ से अगर हट गये तो उसका अवरोध हमें दूसरी जगह जाने को मजबूर कर दे। सत्य हीं ईश्वर है, अगर हम उस सत्य के भीतर के ईश्वर से प्यार नहीं करते तो उस सत्य और उसके ईश्वर से क्या प्रयोजन रह जायेगा। अगर प्रेम इस पर टिका हो कि दूसरा हमें प्यार करता है या नहीं तो यह हमारे भीतर के सत्य से उद्भूत प्रेम है या प्यार के संभावना से प्रेरित व्यवहार। इसके बाद अगर हमें यह मुक्त नहीं करता तो यह ईश्वर के प्रेम रूप की कमी है या हमारी हीं चलायमान प्रवृत्ति है। हम अपने भीतर जब तक शून्य को एकांत भाव से पैदा न होने दें, जब तक अपने को जलाकर भस्म न होने दें तब तक अगर शिवत्व का अमृत हमारे भीतर प्रेम या वैराग्य रूप में नहीं आता तो प्रयत्न की असमर्थता किसकी है। इस चलायमान सत्य विश्व में अगर हम गतिमान रूप से दृष्टि एकाग्र न रखें या स्थिर रूप से नजर स्थिर ना रखें तो अगर विश्व अपने सत्य रूप में नहीं आता तो दैव को क्यूँ दोष देना।

काम का देवता अगर शिव के तीसरे नेत्र के खुल जाने से भस्म हुआ तो यह अग्नि शिव के भीतर साधना से पैदा हुई थी या जैसा कि स्वप्न में शिव ने कहा यह दक्ष के यज्ञज्वाला में भस्म हुई सती के प्यार में जल रहे शिव के राग के विशिष्ट हो जाने से पैदा हुई थी। आखिर ऐसी कौन सी शक्ति काम कर रही थी जो योग के देवता के अधर को भी कंपायमान कर देती है। आखिर भगवान शिव ने ऐसा क्यूँ कहा- उसकी कृष्ण के प्रति यही एकतरफा साधना उसे वहाँ ले जायेगी जहाँ राधा अभी नहीं पहुँची है। आज जहाँ ललिता है वहीं एक दिन राधा को भी खड़ा होना है।

राधा को क्यूँ लगता है, वह अगर कृष्ण को संपूर्ण रूप से चाहती है तो कृष्ण पर किसी अन्य के प्रेम की छाया न पड़े। उसे क्यूँ लगता है, कृष्ण अगर उसे प्यार करते हैं तो कृष्ण को कोई और प्यार ना करे, नहीं कृष्ण हीं किसी और के प्रति झुकें। देवर्षि नारद के कहने पर अगर वह कृष्ण के साथ झूले पर बैठ गई तो श्रीराधा के आखिर किस भावना ने उसे मान करने पर मजबूर कर दिया। कृष्ण का सौन्दर्य क्या इतना पार्थिव है जो एक के प्यार से संपूर्ण हो जाये। कृष्ण के वेणु (मुरली) नाद के आगे धरा का हीं नहीं सारे मनोजागतिक सुख भी फीके पड़ जाते है। ईश्वर के होने की अनुभूति हो जाती है। एक ऐसी सिहरन हो जाती है जो एक कहीं गहरे सत्ता की अनुगूँज बन जाती है। कृष्ण का राधा के प्रति प्रेम उसे यह सब अभी नहीं देखने देता। अगर प्यार ना मिल सकता हो तो प्यार की सार्थकता को प्रश्न समझने वाली राधा ये नहीं सोच पाती। जब एक दिन उद्धारक कृष्ण यहाँ से चले जायेंगे तो यही प्रश्न सबसे ज्यादा राधा के हीं सामने खड़ा होगा, यह प्यारी राधा नहीं समझ पाती। अगर किसी के समर्पण होने से प्यार की संभावना खत्म हो जाती तो आततायी महाराज कंस के विश्वस्त सैनिकों के नायक अय्यन से तो उसकी कब की सगाई हो चुकी है तो फिर उसके हीं कृष्ण के प्रति प्रेम का क्या आधार रह पाता है।

विशाखा, चित्रा, चम्पकलता, इन्दुलेखा, तुंगविद्या, रंगदेवी, वसुदेवी सभी ललिता के साथ बड़ी हुई। सभी एकसाथ नंदगाँव के कृष्ण के साथ सख्य में बड़ी हुई। सब गोप कन्या थी। सब में एक गोपी की भावना है। कभी भी उनके साथ कृष्ण के लिए अलग आत्मा की सीमा खड़ी नहीं हुई। कभी यह भावना नहीं आई। कान्हा के लिए सुख और वेदना साझी है। यही भावना रह गयी। राधा अपनी माता के देहांत के बाद ननिहाल रही। उसके पिता वृषभानु अपनी दूसरी पत्नी के साथ वृन्दावन आ गये थे। वह बड़ी होकर आई और स्वच्छंदता से यहाँ भी घूमती है। यह संयोग है कृष्ण भी वृन्दावन आ गये। राधा का श्रृंगार ललिता जानकर करती है। कृष्ण को क्या अच्छा लगता है, आज भी राधा नहीं जानती जितना ललिता को कृष्ण के बारे में पता रहता है।

ऊँचा गाँव ललिता के गाँव का हीं नाम नहीं है। नंदगाँव के बाद यहीं सबसे ज्यादा संदेश पहुँचते रहे हैं। वह पूरा तो नहीं जानती पर इतना जरूर जानती है कृष्ण को बड़े होकर यहाँ से मथुरा चले जाना है। ललिता अपने संपूर्ण समर्पण के बाद भी जानती है कृष्ण का वियोग हीं उसका सर्वस्व होने वाला है। अत: वह इस संयोग के हर पल को जी लेना हीं चाहती है, भले कृष्ण राधा के साथ हीं प्रेमपूर्ण क्यूँ न हों। शरद की पूर्णिमा का रास विशिष्ट रास बन गयी। कृष्ण बीच में राधा के साथ थे। राधा को अगर संपूर्णता का अहसास था तो राधा की आठ सखियों को भी उतना हीं संपूर्णता का अहसास था। ललिता और कृष्ण एक हीं जगह हैं, यह सत्य का साक्षात्कार उसे संपूर्ण उसे कर रहा था। हम साथ होते हैं। नजदीकी और दूरी तो सापेक्षिक है। हम कहाँ से नजदीकी और कहाँ से दूरी मानते हैं यह मन का विकल्प है। सूर्य सौरमंडल का केन्द्र है। वह जितना बुध के लिए साथ है, जितना बुध के साथ है उतना हीं पृथ्वी के लिए भी है और उतना हीं प्लूटो के साथ है और खुद सूर्य भी सबके साथ हीं गतिमान है। अब यह हमारे ऊपर है हम अपने भीतर एकात्मता का अनुभव करें या द्वैत भाव से ईर्ष्या की अग्नि में जले। कृष्ण के मुस्कान के भीतर छिपे विषाद को राधा अपने प्रेम के संयोग के उल्लास में नहीं देख पाती। लेकिन ललिता ने समझ लिया था। कृष्ण अपने हस्त में बने मुद्रा को देख जब गंभीर रूप से खो गये तो ललिता ने हीं कृष्ण को हौले से धक्का दिया था। जो बात कृष्ण राधा से नहीं कह पाये वह उन्होनें ललिता को हीं कहा। कई बार जब बात गहरी हो तो वह बात अपने प्यार से नहीं कह पाते। मित्र से कह देते हैं। कृष्ण ललिता के बचपन से अनुराग को जानते थे। वे दोनों समानान्तर रूप से मित्र थे। कृष्ण भी उस से खुले हुए थे। यह संयोग ऐसा हुआ राधा वृंदावन आ गयी और वह इस तरह कृष्ण की ओर खिंची की मनमोहन कृष्ण का मन भी मोहित हो गया। ललिता अपनी गति में रह गयी। उसके भीतर ज्वार उठता उस से पहले कृष्ण कहीं और बह गये। लेकिन एक स्थिर गति के बढ़ाव में एक स्थिरता भी होती है जिससे आप अपनी हर बात कह पाते हैं। कृष्ण अब अपनी खुशी के लिए प्यार नहीं करते। वे राधा की बड़ी-बड़ी आँखों के अश्रुपूर्ण होने से डरते हैं। वे राधा के अधर के परिचित मुस्कान के हीं परिचय को पाना चाहते हैं। वे जानेवाले हैं ये वो राधा से नहीं कह पाते।

"तुम्हारे होने पर हम सभी जितना प्यार करते हैं उतना हीं हम सब तुम्हारे खोने पर भी करेंगे, राधा भी करेगी", यह सुनकर कृष्ण ललिता को स्थिर एकटक देखने लगे। ऐसा लगा जैसे कृष्ण समझ हीं नहीं पाये ललिता ने क्या कह दिया दूसरे पल कृष्ण इसके अर्थ में ऐसे डूबे जिसने कृष्ण की पूरी जिंदगी के हीं लिए प्यार का मतलब बदल दिया। मेरे जाने के बाद राधा को संभाल लोगी ना, उसे संभाल लेना उस से ज्यादा कृष्ण बोल नहीं पाये। कृष्ण का गला रूँध चुका था।

 

  सौरभ कुमार का साहित्य  

 

 

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