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निगोशियेशन (तलाश रिश्ते की)

सौरभ कुमार

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निगोशियेशन (तलाश रिश्ते की)

हरिमोहन बाबू उत्साह के साथ चाय की प्याली को खत्म कर बगल के टेबुल पर रख चुके थे। पत्नी वापस आई तो साथ में अखबार भी लेती आई थी। जब वह कप को लेकर वापस जाने लगीं तो बरबस हरिमोहन बाबू अपने पत्नी को देखने लग गए। वैवाहिक जीवन कैसा होता है? जब वह उनके जीवन में आई थी तो प्रथम रात उसके हथेली में दूध का गिलास था। तब से लेकर आजतक वह उनका ख्याल रखते आई हैं। समय कैसे बदल देता है? रूप को भी और भावना को भी। कहाँ अल्हड़ जवानी की मस्ती और कहाँ ये नदी का पतली होकर शांत बहना। देखने की दृष्टि और उपमान बदल जाते हैं। सबके जीवन में घटे यह कहाँ होता है लेकिन उनके जीवन में घटा है। अब उन्हें लगता है पत्नी के राग विशिष्ट रूप के रहने पर भी स्त्री स्त्री हीं होती है, उसके रूप का अलग महत्व नहीं होता है। अब उन्हें अपने माँ और पत्नी के इस रूप में कोई अन्तर नजर नहीं आता है। कभी उनके भीतर टीस सी उभर जाती है। काश यह अनुभूति सबके साथ होती।

अखबार एक बार पढ़ चुके हैं। अभी साढ़ेसात हीं बजे हैं। दाढ़ी बनाने के लिए उठने हीं वाले थे कि भीतर से एक रोक जैसे उठा और दुबारा अखबार पढ़ने बैठ गए। उन्होंने पूरी रात अपने भीतर उत्साह भरने में लगा दिया था। पूरी रात वो सो भी नहीं पाये थे। अपनी दूसरी बेटी का रिश्ता तय करना था। उन्होने अपने भीतर की उदासी को हावी नहीं होने दिया था। खुद में जोश भी भर रहे थे और पहली पुत्री की नाकाम वैवाहिक जीवन से खुद को उबारना भी चाह रहे थे। अपने को ये विश्वास दिला रहे थे कि ऐसा इसबार नहीं होगा।

अखबार दुबारा पढ़ चुके थे। दाढ़ी भी बना लिया था और वे नहा भी चुके थे। साढ़े नौ बजे लड़के वाले के यहाँ जाना था और अभी साढ़े आठ हीं बजा था। दुबारा आकर पलंग पर जा चुके थे। रात नींद पूरी ना होने की वजह से तंद्रा का भी अनुभव कर रहे थे। सोचा थोड़ा लेट हीं जाया जाए।

धीरे-धीरे लड़के को देखने जाने और बात करने के लिए उनका बनाया उत्साह कम होता उन्हें लगा। फिर उन्हें लगा सारी दुनिया एक सी नहीं है। सारे लड़के और उसके परिवार एक सा हीं तो नहीं होता। जो एक बेटी के साथ हुआ वही आगे भी हो यह जरूरी तो नहीं है। उन्होंने प्रयास कर अपने मन को वहाँ से हटाया। अब तक वो आ चुके थे जिनके साथ उन्हें जाना था। सामने उनकी बेटी पानी लिए आयी तो उन्हें खोयी बेटी हीं खड़ी नजर आयी। ध्यान आया तो मेहमान के लिए पानी वो थरथराते हुए हाथ से लिए पी रहे थे। ना चाहते हुए भी दहेज के लिए जलायी गई अपनी बेटी का ख्याल हीं उनके जेहन में उतरता जा रहा था। वो अपने आप को वहाँ से हटा रहे थे पर घूम कर वहीं आ जा रहे थे। वो अब नहीं जाना चाह रहे थे। लेकिन कर्तव्य तो पूरा करना था। संस्कार कहें, अनुशासन कहें या जिंदगी की बनावट कहें जब जिंदगी का ऐसा रूप दिया था तो यह दायित्व उन्हीं के द्वारा पूर्ण होना था। समाज में कुछ लोग अपने लिए रिश्ते खुद तय कर सकते हैं। जो नहीं कर सकते उनके लिए परिवार और समाज यह काम करता है। जो कर सकते हैं वो भी तभी जब उन्हें इसके लिए इजाजत हो और उस तरह का आत्मविश्वास और स्वतंत्रता भी हो। एक बार एक दायरा तय करने के बाद खुद कुछ करने का सवाल भी नहीं रह जाता है।

होश आया तो वो लड़के के घर के बारामदे में थे। लड़के के चेहरे पर रिश्ता आने का आश्वासन था। ऐसे तो चेहरे में तेज नहीं था। कमा जरूर अच्छा लेता था। कभी कभी उसकी आँख चमक जरूर जाती थी। फिर वही खुद को गंभीर दिखने का प्रयास। क्या यह भी लड़का होकर कुछ रकम कम होने की वजह से तिलक चढ़ने के बाद हंगामा करेगा, गाली देगा। हरिमोहन बाबू सोचने लग गये। वे अनमन्यसक हो चुके थे। वे उस स्थिति से भागना चाहते थे। भाग सकते नहीं थे लेकिन। उन्होंने बायोडेटा और फोटो निकाला। जन्मपत्री की मांग नहीं उठी थी। आपकी बेटी तो सुन्दर हैं के साथ फोटो को उनके मित्र ने लड़के के पिता की तरफ बढ़ाया। मित्र भी फोटो देखकर सोचते रह गये। एक तो एक लड़की ऐसे हीं रिश्ते के लिए फोटो के नाम पर आधी हो जाती है। फिर जहाँ शादी का ये अंजाम हो वहाँ अच्छी पढ़ी लिखी होने के बाद भी उसके चेहरे का तेज कैसे बचा रह सकता है। हरिमोहन बाबू ने ज्यादा पूछताछ नहीं किया। बस सबकुछ देखते रह गये।

वे घर आ चुके थे। वे अपने कमरे में जा चुके थे। पत्नी से उन्होंने कुछ बात भी नहीं किया। वो चाह कर भी कुछ पूछ नहीं पायी। वो पानी  देकर जा चुकी थी। शादी के 32 वर्ष में पहली बार उनके  पति ने तन्हाई मांगी थी। तकिये के सहारे लेटे वो छत की दीवार को एकटक देखे जा रहे थे। उन्हें याद आ रहा था कैसे उन्होंने अपनी बेटी को इसलिए उस लड़के के सामने थप्पड़ मारा था जो उसे सब्जेक्ट का नोट देने आ गया था। वो सोच रहे थे क्या वह सही था अगर वो नोट देने हीं आ गया था। और अगर उसके मन में कुछ था भी तो जो हुआ अपनी बेटी के साथ क्या उससे भी गलत होता वह?

रात बीत चुकी थी। उनके मित्र आ कर एक नया रिश्ता बता रहे थे। लड़के वाले को फोटो जची नहीं थी। यह लड़का भी अच्छा कमा रहा था। चाय पानी के बाद वे जा चुके थे। वे दरवाजे पर खड़े हीं थे कि पुतुल का कालेज का पढ़ने वाला एक लड़का आया हुआ था। वो उसे ड्राईंग रूम में बैठा कर अपने कमरे में लेट चुके थे।

 

  सौरभ कुमार का साहित्य  

 

 

 

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