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परमहंस
इसमें बाबू ऐसा क्या बुरा है, जो ऐसा नुकसान पहुँचा दे जो कभी खत्म नहीं होगा। बात तो तम्बाकू कि बुराई की थी परंतु डॉक्टर प्रशांत परमहंस बाबू को देखने लगा - ‘जो इस बुड्ढे जान में अभी भी पुराना विश्वास जिंदा था’। ऐसे मरीज तो प्रशांत ने बहुत देखे थे जो मरीज बन कर मौत की छाया को देख कर निराशा से घिरे रहते थे। परंतु इस बुड्ढे में कुछ तो बात थी जो मौत नहीं सोचता था। और आश्चर्य ये कि उम्रकैद की सजा पूरी कर कारावास में रह कर भी जिंदगी से भरा था। आखिर ऐसा क्या होता है कि कुछ जगह जीवन अपनी कटुता नहीं दे पाता।
वो यौवन के दिन थे। नाम तो उनका परमहंस था। परंतु यह परमहंस वैरागी नहीं था। इसके भीतर की अनासक्ति अपने अर्द्धांगिनी के रस यौवन में उतर आया था। जो अपने प्रिया पर किसी के छाया को भी नहीं डालते देख सकता था। भगवान सूर्य के भी या ये कहें कि उनकी उस रौशनी को भी नहीं जो उसके प्रिया के रंगत को भी मुरझा दे। जर, जोरू, जमीन पर किसी की छाया न पड़ने देना चाहिए और वो अपनी जोरू यानि प्रेमिका पर नजर नहीं डालने देता था। और वो खुद उसपे नजर डाले उसके बरस दर बरस गुजर जाते थे।
जमाने कि हवा भी अलग होती है। जो प्यार से जी रहा हो वह भी नहीं जी पाता है। हवा चल रही थी। वह अपने जमीन पर हीं खड़ा था। अपने वतन की जमीन की रक्षा करना शहादत है। वह शहादत के लिए खड़ा हो चुका था। अपना और अपने वतन की भावना की जमीन एक हीं होती है। आज उसके हीं जमीन पर बलात कब्जा करने को कुछ गैर कानूनी लोग आ चुके थे।
वह अपने इलाके के थाने में असलहे के साथ जा खड़ा था। वह जमीन पर कब्जा करने आये तीन लोग को मार कर आया था और खुद हीं तफ्तीश लिखा रहा था। वह कर्त्तव्य निभाना और कर्म के भोग के अटल नियम पर खड़ा था। जहाँ ईश्वरीय न्याय ऊपर और अधूरी हीं सही उसीकी यह अनुकृति नीचे है। पता नहीं क्यों कुछ लोग गन के बैरल से पावर का निकलना मानना पर्याप्त मानते है। गन का बैरेल तो हर तरफ हो सकता है। इससे निकली शक्ति आसुरी भी हो सकती है। एक तरफ हो तो न्याय, अन्याय का एक फैसला हो सकता है। नही तो विरोध और हिंसा के अलावे क्या सृजन लेगा। लेकिन जब शक्ति मानव के भीतर करूणा से निकलती है तो तब जाकर समाधान निकलता है। विरोध नहीं निकलता। त्याग की वह धारा निकलती है जहाँ एक वस्त्र वाली वृद्धा के एकमात्र साड़ी और नगर के सबसे धनी के भी संपूर्ण धन के त्याग को ले आती है।
वह जेल में रहा। जल्दी हीं अपने नियमित जीवन चर्या से जेल का राइटर बना दिया गया। वह अन्य कैदियों का देखभाल करने लगा। वो अपने मिलने आने वाले लोग से समाचार जानकर खुद हीं उन्हें लौट जाने के लिए कहने लगा। दूसरों को भी मिलना है, अपने काम पर ध्यान दो यह कर उन्हें जाने के लिए कहता। वह व्यवस्थावादी था। परंतु उसे व्यवस्था का यथास्थितिवादी नहीं कह सकते। वह सुधार भी व्यवस्था में हीं का पक्षपाती था। वह जेल के भीतर भी अराजकता का समर्थन नहीं कर पाता था।
वह जेल से सजा पूरी कर बाहर आ चुका था। उसके बच्चे उसके आँख के सामने नहीं बढ़े थे। उसकी बेटी की शादी उसके पुत्र ने किया था। लोग उसे अपने पोती के शादी के देखने की बात करते थे। वे कहते शादी तो हो हीं जायेगी। अपने बहन का बाप भी प्रद्युम्न और अपने बेटी का बाप भी प्रद्युम्न। जैसे बहन का किया वैसे बेटी का भी कर लेगा।
वे घर जा रहे थे। इसकी उन्हें तसल्ली थी। वे अस्पताल से अपने घर अब जा रहे हैं। उन्होंने अपने मिलने आए परिचित को हँस कर बता दिया कि वे अब यहाँ से चले जायेंगे। अगले दोपहर
को वे इस दुनिया से जा चुके थे।
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