रचनात्मकता, मनोसमस्या और ध्यानयह जब कि स्थापित तथ्य होता जा रहा है कि मनोसमस्या का रचनात्मकता से अनिवार्य संबंध नहीं है परंतु किन्हीं मात्रा में रचनात्मकता और मनोसमस्या में संबंध है। तब यह सोचना अनिवार्य हो जाता है कि ऐसा क्या किया जाए कि रचनात्मक प्रतिभा जो अपने बाल्यकाल में भी जब कि उनकी रचनात्मकता को सही पहचान और स्वीकार्यता मिल पाना आसान नहीं होता, किस तरह उन्हें संरक्षित किया जाये कि वे अपने बचपन में मनोसमस्या से बच पायें और आगे के व्यस्क जीवन में मनोसंवेग द्वारा उत्पन्न प्रतिरोध का सामना और संतुलन कर सकें। यह भी जरूरी है कि मष्तिष्क की विकृति और संवेगात्मक असंतुलन में भेद किया जा सके। अभी भी कई भेद का मौटे तौर पर हीं वर्गीकरण है और समाज में तो और भी अज्ञान और पूर्वाग्रह के साथ अज्ञानजनित दुराग्रह है। क्या यह संभव है कि व्यस्क वय के रचनात्मक लोग जिस पीड़ा को झेलते हैं वह एक खास छोटे उम्र के रचनात्मक बालक में भी मनोसंवेग की तीव्रता चल रही हो। हमें यह नहीं भूलना चाहिए जिस प्रकार कथा का सत्य जीवन में सच नहीं होता बल्कि जीवन का सत्य हीं कथा में आता है, उसी प्रकार रचनाकार में मनोसंवेग तीव्र नहीं होते बल्कि तीव्र मनोसंवेग हीं अभिव्यक्ति की कला द्वारा रचना रूप को पाते हैं। हमें यह नहीं कहना कि हर रचनाकार में मनोसंवेग तीव्र हीं होता है। रचनाकार सामान्य और संतुलित होता है और होना भी चाहिए। हमें इसकी कामना भी करनी चाहिए। मेरे अपने अनुभव जो रचनात्मक भी है और जिस मनोसंवेग की तीव्रता का अनुभव भी करता हूँ साथ हीं साथ अपने 2011 में करीब 16 वर्ष का ध्यान का अनुभव भी है। ध्यान के फायदे और उसके फिसलने के खतरे को भी अनुभव किया है। हमें ध्यान के जो कूलडाउन (शांत, उत्तेजना हीन, और प्रकृति को स्वस्थ) करने का लाभ है उसे व्यापक रूप से अपनाना चाहिए। और ये भी कि ये बिना किसी धार्मिक आग्रह और बिना धार्मिक दुर्भाव के ग्रहण करना चाहिए। मेरे अनुभव में तो ध्यान सभी प्रकार के वैमनस्य और दुर्भाव को दूर करने के लिए हीं होता है। यहाँ ये भी स्पष्ट होना चाहिए जिस प्रकार आज के प्रतिभाशाली और महान रचनाकार मनोसमस्या के प्रभाव में आते दिख रहें है तब सबसे प्राचीन पुस्तक वेद और साहित्य के देश में महान रचनाकारों का स्वस्थ होना और उन्हें मनोसमस्या से मुक्त होना यह अपने आप में एक तुलनात्मक समाज और रचनाकार के अध्ययन की माँग करता है। हमें बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग या जैन धर्म के 5 व्रत या योग के 8 स्तर को सिर्फ सांप्रदायिक या धार्मिक रूप से देखने के बजाये उन्हें भारत में रचनाधर्मिता को अनुशासन, व्यवस्था और रचनात्मकता या जीने के ढ़ंग के रूप में देखा जा सकता है। यह अनायास नहीं है कि हम एक तरफ अपने हीं देश और क्षेत्र में काम कर रहे व्यक्ति में समस्या से उलझा रूप पाते है और दूसरी तरफ अंतर्राष्ट्रीय रूप से सफल और काम करने वाले महात्मा गांधी, विवेकानंद, श्री श्री रविशंकर, नेल्शन मंडेला, अन्ना हजारे ज्यादा स्वस्थ और संतुलित हैं। अपने अपेक्षा के दबाब के बावजूद ये शांत हैं, न ही ये नशा के हीं शिकार हैं। यह प्रासंगिक विषय है और चिंतनीय भी है। सत्य सत्य होता है, कोई वाद नहीं होता और दुराग्रह भी नहीं होता। भले हीं कितना भी खारिज किया जाए या इंकार करने की कोशिश की जाए। मनोसमस्या और उसकी प्रवृत्ति का हस्तरेखा और ज्योतिष में प्रबल रूप से रेखांकन होता है। उसकी शब्दावलि में भिन्नता होती है। बहस इस पर नहीं किया जा सकता कि रेखाकंन के बाद वे चिकित्सक के देखरेख में क्यूँ नहीं है। आखिर समाज में इसके प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण है क्या? लेकिन अगर चिकित्सा और हस्तरेखा और ज्योतिष मिल जायें और सहयोग करे तो हम इसका लक्षण के परिपक्व होने से पहले हीं सावधानी ले सकते हैं और शायद ज्यादा स्वस्थ समाज बना सकते हैं। जिस प्रकार आधुनिक विधि के क्षेत्र में परिवेश के साथ आनुवांशिक कारक को एक तत्व के रूप में अपराध के संदर्भ में लिया जा रहा है। उसी पैटर्न की तरह ज्योतिष और हस्तरेखा के साथ-साथ सामुद्रिक भी एक पैटर्न को इंगित करता है। अब आधुनिक समाज में ज्ञान के इस रूप का हम यथार्थवादी रूप से इस्तेमाल करते है या पूर्वधारणा के वशीभूत इससे समायोजन नहीं करते हैं इसकी जिम्मेदारी हमारे हीं कंधे पर है और हम इससे बच नहीं सकते।
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