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स्निग्धा
सौरभ कुमार
(Copyright © Saurabh Kumar)
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स्निग्धा
हमर पियवा बड़ बेस,
खियावे मूँगफली
स्निग्धा की बड़ी बहन सुगंधा गा रही थी, इतरा रही थी और स्निग्धा के भीतर मानसिक रूप से अभाव का भाव पैदा कर शादी के लिए भाव की भूमि तैयार कर रही थी। बिहार के गाँव में शादी की एक रस्म कुँवरपत की भी होती है जो शादी करने वाला अपने से छोटे को देता है ताकि उसके जीवन में भी शादी की मधुरता जगे।
त्रासदी का आरंभ भी त्रासद रूप में हो ये जरूरी नहीं होता। कई बार कर्त्तव्य-भावना भी त्रासद रूप तक पहुँचती है। या ये कहें कर्त्तव्य-भावना हीं ज्यादा त्रासद तक पहुँचती है। प्रमाद या अपराध के अंत को त्रासद नहीं परिणाम हीं समझना चाहिए।
सुगंधा डॉक्टरी के अंतिम वर्ष में थी और इंटर्नशिप कर रही थी। चिकित्सकों का हड़ताल पे जाना कारण रूप में भले उसे सहमत करता हो, व्यवस्था के कुंभकर्णी नींद उसे जायज बनाती हो पर वह दोनों हीं के मुकाबले अस्वस्थ व्यक्ति के बीमारी से उसे करूणा हीं ज्यादा होती थी।
हॉस्पिटल के मैनेजमेंट के आश्वासन पर हॉस्पिटल द्वारा निर्धारित वाहन के न उपलब्ध होने पर उनके द्वारा सुरक्षित वाहन भेजने के आश्वासन पर वह उन गरीब मरीजों के देखभाल और यथासंभव चिकित्सा देने के खातिर वह जाने को तैयार हो जाती है।
स्निग्धा अस्वस्थ है। सुगंधा के साथ हादसा हो जाता है। उसकी मृत्यु गाड़ी में बलात्कार और जानबूझकर उसके अंदरूनी पार्ट में चोट पहुँचा कर की जाती है। सुगंधा की शादी मनोचिकित्सक दीपक से होनी थी। डॉक्टर दीपक की बहन रूपसी एक जीवंत व्यक्तित्व है जो सुगंधा से परीचित थी और जिसने यह शादी ठीक करवाई थी।
एक तरफ सुगंधा की हत्या और बलात्कार का केस जाँच और केस कोर्ट में अपनी रफ्तार से चल रहा होता है लेकिन अब सदमे से आहत स्निग्धा का इलाज प्रमुख रूप ले लेता है।
सोशल स्टिग्मा से ग्रस्त स्निग्धा का परिवार स्निग्धा के चिकित्सा से बचना चाहता है। रूपसी अपने भाई दीपक को समाज के परंपरा के खिलाफ स्निग्धा के घर चलने को तैयार करती है। दीपक के कहने पर स्निग्धा के पिता मिस्टर कुमार उसका इलाज दीपक से शुरू करवाते हैं। रूपसी स्निग्धा को दुख से ग्रस्त होकर बंद जीवन में होकर नहीं रहने को कहती है। उसे आराम और जिदंगी के सुंदर पक्ष में अंतर को समझाते हुए जीवन से जुड़ने को प्रोत्साहित करती है। स्निग्धा रूपसी के घर आना शुरू करती है।
डॉक्टर दीपक के इलाज (शरीर+प्राण+मन+बुद्धि+खुशी या आत्मा) और रूपसी के साहचर्य एवं प्रेरणादायक अनुभवी बात से उसे नींद तो आने लगती है पर उसके सपने में सुगंधा का गाना गाते हुए रूप उसके साथ हादसे की छवि एवं मूँगफली के छिलके के टूटे ढेर बढ़ते हीं जाते हैं। वह नींद में अस्तव्यस्त हो जाती रहती है।
नाम बोध या सुबोध हो जाने से बुद्धि में सही-गलत की पहचान आ जाये ये जरूरी नहीं होता। वाल्मीकि बनने से पहले डाकू थे। उनका रूपातंरण हुआ लेकिन उससे भी बड़ा सत्य ये है कि वे पहले वरूण (प्रचेत) के पुत्र थे। पुराने बीज हीं निष्फलता पाकर पुन: तृष्णा से भक्ति पथ पर गया था। सुगंधा का केस अदालत में चला। सुगंधा के केस का आरोपी सुबोध पर केस चला। गाड़ी भी उसकी थी और ड्राइव भी उसी ने किया था। कहीं के स्कूल का रिकार्ड लाकर दायर हुआ और नाबालिग होने से वह सजा न पाकर जुवेनाइल एक्ट के तहत सजा का अवधि पूरी होने पर रिमांड होम से निकला और उसके क्रीमीनल रिकार्ड नष्ट कर दिए गए।
अब सुबोध पाक साफ होकर विधान-सभा का प्रत्याशी है। कानूनन इसमें कोई बाधा नहीं थी। एक नई पार्टी को उसके धनाढ्य पिता ने राज्य में चुनाव लड़ने हेतु बड़ा चंदा दिया और अब वह एक बुजुर्ग, पुराने अनुभवी वर्तमान विधायक नेता रामदयाल और उनकी पुरानी पार्टी के सामने वह था। दूसरे नंबर पर रहने वाले नेता जी गिरीजेश भगवान पर काफी आस्था रखते थे। ज्योतिष की सत्यता से ज्यादा पंडित जी के तांत्रिक सिद्धी पर विश्वास करते थे। हल्दी की माला, भगवती माता के मेले में शामिल होते थे। वो भी फिर भाग्य आजमा रहे थे।
स्निग्धा इन चुनावों से बेखबर रहती थी। लेकिन रूपसी के लिए जीवन का एक पार्ट यह भी था। उसके लिए उत्साह तथा अवेयरनेस का इसमें भी महत्व था। यह भी सच है अब दीपक और स्निग्धा का प्यार भी पनप रहा था।
चुनाव का परिणाम सुबोध की धन की शक्ति और सेवा के छद्म के विपरीत आया। पुराने नेता रामदयाल अपने सच्चाई के भीतरी साख से जनता के सपोर्ट से विजयी रहे।
सुबोध दूसरा आया और गिरीजेश तीसरा स्थान पाया।
लेकिन जब पुरानी साथ वाली पार्टी से सरकार का गठबंधन टूटा और पुरानी पार्टी की अपनी सरकार बनी तो रामदयाल जी की वरीयता को नजर अदांज किया गया। खरीद-फरोख्त करने में सुबोध के पिता ने धन का दाँव लगाया। सुबोध बन नहीं सकता था पर रामदयाल जी उपेक्षित कर दिए गए। उनके समर्थकों ने पार्टी में हंगामा किया था। नये कद्दावर नेता जी ने ऐसी डाँट लगाई की हृदयाघात के कारण नये साल के तिथि के साथ रामदयाल जी की पुण्यतिथि सदा के लिए स्मरणीय हो गई।
अब पता नहीं ये गिरीजेश के पंडितजी का मारण प्रयोग का असर था या अपमान के सहज कारण का परिणाम। लेकिन दुबारा चुनाव हुए तो पुरानी पार्टी का उम्मीदवार अब सुबोध था। नई पार्टी ने अब एक मॉडल को उतारा था। लेकिन एक पूर्व अपराधी के जीत की संभावना ने रूपसी को आंदोलित कर दिया। उसने स्निग्धा को स्वस्थ देख कर जनता के शांत भीतरी जनमानस को पहचानते हुए स्निग्धा को निर्दलीय चुनाव लड़ने पर तैयार किया।
अमूमन हमेशा बेवकूफ बनाई जाती जनता ने अपनी समझ को नहीं छोड़ा और निगेटिव लोग को अपना भाग्य नहीं सौंपा। उसने स्निग्धा में हीं अपना हमदर्द चुन लिया।
आज वह एक पीड़क को हरा कर पीड़ित होने के भाव को मिटा चुकी है।
(सूचना- इस कहानी के प्रकाशन के कुछ समय बाद भारत में जुवेनाइल एक्ट में संशोधन कर उसके कुछ भाग में कड़े दंड का प्रावधान किया गया है।)
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