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शर्मिला नेचर
सौरभ कुमार
(Copyright © Saurabh Kumar)
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शर्मिला नेचर
हमारे शर्मिले नेचर का कन्सर्न जो हमारे भीतर है उस से होता है। जो हमारे भीतर नहीं है उस से ताल्लुक नहीं रखता है। मेरी निजी राय है कि जो हमारे भीतर है उसे हमें स्वीकार करना चाहिये। बाइबल की कहावत है अपने में नमक बनाये रखो वर्ना नमकीन कैसे करोगे। इसलिये हम जैसे है हमें उसे वैसे हीं स्वीकार करना चाहिये। ईश्वर ने हमें जब बनाया है तो उसने अच्छा हीं बनाया होगा।
जब हमारे इष्ट का पता प्रवृत्तियाँ हीं देती है तो हमें अपने प्रवृत्ति से डरना भी नहीं चाहिए। उन्हें छिपाने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए। न तो उनसे दबना चाहिए या लज्जित होना चाहिए। जीवन में संतुलन लाने के लिये प्रवृत्ति के हिसाब से अपनी साधना करनी चाहिए। ऐसे समर्थ गुरु कम होते हैं जो मनुष्य की प्रवृत्ति को देखते हुए हर किसी का मार्गदर्शन करें। अत: गुरु या मार्गदर्शक का चुनाव करें। या सच कहें तो गुरु को हीं शिष्य की प्रवृत्ति को देखते हुए शिष्य का उत्तरदायित्व लेना चाहिए। प्रवृत्ति हीं वह आधारभूत रस्सी है जिस पर चढ़कर शिष्य सत्य का दर्शन कर सकता है।
आप जब सीमित आत्म द्वारा आनंद की खोज करते है तो मस्तिष्क तीव्र हार्मोनो और रसायनों से आवेश में आकर आप को आनंद देता है। जब आप नहीं करते तो मस्तिष्क उन्हीं उत्तेजना की मांग करता है। और आप मजबूर हो जाते हैं।
अगर आप नहीं करना चाहते हैं तो अपने आप को उन कामों में लगायें जो आप को मानसिक संतुष्टि दे सके और आप को खुशी दे। लोगों की मदद करें। आप को प्रसन्नता मिलेगी तभी आपका मस्तिष्क उन तीव्र संवेगों की मांग नहीं करेगा। जब हम स्वयं को प्रेम करते हैं तो स्वयं को स्वीकार कर लेते हैं। हमारा स्व विस्तृत होता है। यह हमें दूसरों को स्वीकारने का साहस देता है। और जब हम दूसरों को स्वीकार लेते है तो हमारा आनंद विस्तृत और दीर्घकालिक हो जाता है पार्थिव स्थूल की भौतिक सीमा से निकल कर हम प्रकृति की लचीली दुनिया में प्रवेश करते हैं।
ध्यान, प्रार्थना और रचनात्मक विचारों में लगाना हीं रास्ता है।
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