|
|
सुबह
सुबह कितनी सुहावनी थी। वह उमंगों से भरा जीवन। विवाह के पश्चात जिस क्षण का वह बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, वह पूरा हो चुका था। उनकी गोद में उनके आशा आकांक्षा अपना अस्तित्व ले चुका था। अब उन्हें बुढ़ापा की चिंता नहीं करनी थी। उनकी लाठी बनने के लिए उनका पुत्र आ चुका था। तभी घंटी बजी। उन्हें अहसास हुआ उनकी होठों पे मुस्कान लाने वाला उनकी जवानी का पल कहीं दूर जा चुका है। वे अपने नवजवान पुत्र के साथ मनोचिकित्सक के क्लिनिक में बैठे हुए है। साथ के बैठे दूसरे मरीज के परिजन उनके अधर पे आयी मुस्कान को देख अचरज में पड़े हुए है। उनके भीतर कसैला अनुभव भर गया। उन्हे अपनी लाठी के टूटने का अहसास हुआ। फिर भी अब भी उनमें उम्मीद थी। लाठी जुड़कर हीं सही खड़ा जरूर होगा। वे पूरी हमदर्दी के साथ सोचते थे। परंतु अपने पुत्र के मानसिक रूप से असंतुलित होने को समझ नहीं पाते थे। यह वे समझ नहीं पाते थे यह उनके पुत्र के साथ कैसे हो सकता है? काश लोग सोच पाते घटनाएं इस लिए घटती हैं क्योकि ऐसा घट सकता है। कारण और वजहें होती है। यह हमारे जानने और समझ से नियंत्रण के वजह से घटनाएं नहीं होतीं।
उन्हें यह पढ़ कर दिलासा होती थी कि मानसिक रोग ना पाप है ना अपराध। यह एक रोग है जिसकी चिकित्सा की जा सकती है। लेकिन समाज में हर असंतुलन को एक पागल शब्द में हीं घेरा जा रहा था और एक हीं प्रतिक्रिया स्थिर की जा रही थी। वे चाह कर भी सभी को या समाज को नहीं समझा सकते थे। उन्हें चिकित्सक के पास आते छ: महीने हो चुके थे। उसका व्यवहार तो सामंजस्यपूर्ण हो चुका था। लेकिन जब तब उसके बारे में परिचित की यह वक्तव्य आ जाता था "यही था ना जिसका दिमाग गढ़बढ़ा गया था। किसी के उसके सामने कहा गया यह कमेंट कैसा अनुभव कराते रहता है यह लोग नहीं सोच पाते हैं।
अब उन्हें पानी के स्थिर हो जाने का अहसास हो रहा था। ऐसा लगता था अब ज्वार उठने की संभावना काबू के भीतर आ गई है। अब उनके भीतर पिता होने का अहसास गिरता जा रहा था। कभी-कभी उन्हें अपने पुत्र को सुनने का मौका मिल जाता था। आखिर एक आशा आकांक्षा का मंदिर कैसे ढहता गया था। जिन अहसास को लगता था वे अपने स्तर पर सहते हैं यही हकीकत नहीं थी। वे सोचते थे घटनाओं को वो अपने पर हीं झेल लेते हैं। वे सोचते थे वे अकेले निपटते हैं। जबकि एक पिता हीं तक घटनाएं नहीं थी। वो एक व्यक्ति थे जो झेल रहा था तो दूसरा भी एक व्यक्ति के तौर पर झेलता था भले वह जिम्मेदार या उसके पास दायित्व नहीं होता था। कैस वह बेचैनी में शांति चाहता था और पिता की पैदा हुई झल्लाहट एक हिंसा का हीं असर पैदा करती थी।
वह चुप होता चला गया था। किस तरह लोग प्यार तो करते है पर अपने जीवन में उसे छुपा कर चलते हैं। कई बार रिश्ते का दूसरा नाम दे दिया जाता है और वो रिश्ता इस समाज में चलता रहता है। लेकिन उसने अपने प्यार को स्वीकार कर लिया। वह अस्वीकृत हुआ। इसलिए नहीं की उसके प्यार में गलत था बल्कि उसने सत्य को सत्य के रूप में हीं रखा था। और सत्य इस रूप में रखा जाए यह हमें पसंद नहीं होता।
सच पूछो तो हमें प्यार में भी दुनियादारी पसंद है। हम ये तो चाहते है कि दूसरा हमारे प्यार को जाने। लेकिन यह अनकंडीशनल है, यह अहसास हम नहीं देना चाहते। हम उसे परिस्थिति सापेक्ष दिखाना चाहते हैं। हमारे लिए जटिलता भी सुविधाजनक लगता है। जिंदगी चलते जाती है।
जिंदगी पटरी पर लग रही थी। वह अब कालेज जाने लगा था। वे भी अपने दफ्तर में सामंजस्य कर गये थे। आदमी की अच्छाई एक पल में ध्वस्त हो जाती है लेकिन लगा दाग छूट कर भी नहीं छूटा करता है। उन्हें अपने पुत्र के बारे में अभी भी सुनने को मिल जाता था जिसमें पुरानी सूचना कम लेकिन एक अनकहा संदेश छुपा लिए रहते था।
समुद्र की तस्वीर देखो तो शांत लगता है, दूर से देखो तो भी शांत लगता है। कोई हलचल का अहसास नहीं होता। लेकिन पास जाकर देखो तो क्या मिलता है? जीवन हिलोरे ले रहा है। शांत नहीं है। हलचल में ही जीवन का विकास है। अब वे अपने पुत्र में अपना निर्माण, बुढ़ापे की लाठी या खुशी नहीं देखते। उसमें अब वे एक समानांतर अस्तित्व देखते हैं जो कई आयाम के हिलोरे के बीच बढ़ता है। शायद वो प्यार होता है जो रिश्ते की शक्ल में बंधा होता है। प्यार अहसास की चीज है जो उपर-नीचे, आगे-पीछे नहीं होता। समानांतर होता है। उसे इसी रूप में देखा जा सकता है।
उनके पुत्र की पढ़ाई पूरी हो चुकी थी। वो श्रेष्ठ तो साबित नहीं हुआ था परंतु उसके उपलब्धि के लिए निराशा भी नहीं थी। आशा थी वो अपने जिंदगी में एक दिन कमा हीं लेगा। सुबह हो चुकी थी। वो नाश्ता कर चुके थे। आठ बज चुके थे और उनका बेटा अब सोकर उठने वाला था।
|
|
|