Saurabh Kumar  astrologer spiritual healer writer poet

 

तुलिका

सौरभ कुमार

(Copyright © Saurabh Kumar)

Founder of brandbharat.com

 

तुलिका

जब जिंदगी इतनी छोटी है, तो लोग रूठते क्यूँ है।
जब इतनी तन्हाई है, तो लोग दूर जाते क्यूँ है।
माँग पर गिरते पानी से सिंदुर धुल कर उसके गाल, चेहरे और स्वयं उसके अस्तित्व को वैधव्य के रंग से रंगाता जीवन का प्रश्न उसे बेसुधी में भी एक सुध दे रहा था। विधवा होना क्या है? दूर होना हीं है। क्या फर्क पड़ता है विधवा या विधुर होनें में। होना तो दूर हीं होना है। फिर दूरी कहाँ से नापते हैं, यह महत्वपूर्ण क्यूँ है? प्यार के निगाह से देखो तो दूर हीं होना है। क्या खुद दूर जानेवाला दूर जाकर दूर नहीं हो जाता है। उसने तो प्यार हीं किया था। ऐसा नहीं वह यह आने वाली दूरी नहीं जानती थी। लेकिन उसने इसे स्वीकार किया था।

नन्ही तूली कब अनजाने तूलिका से रंग भरने लगी वह भी नहीं समझ पाई। उसके तूलिका नाम से यह कब रंग घुल गया कोई नहीं जान पाया। रंग तो सब बच्चे भरते हैं। जिन्हें वे प्यार करते हैं उनका रंग भर देते हैं। किसी बच्चे के पेंटिग से यह आसानी से जाना जा सकता है वह किसे प्यार कर रही है। लेकिन तूलिका से यह सचेतन रूप से जुड़ गया। जब तूलिका चार-पाँच साल की थी तभी से वह अपने मम्मी-पापा के बर्थ-डे और मैरिज-डे पर पेंटिग बना कर विश करने लगी। जब नाम और कर्म जुड़ जाते है तो एक अलग रूप में अंत:संबंध ले लेते हैं। यह उसके लिए शौक नहीं रहा और ना हीं प्रोफेशन। ना हीं प्रोफेशन से जुड़ी मजबूरी। यह कहना भी सही नहीं होगा कि यह स्वतंत्रतापूर्वक होता है। स्वतंत्रता भी एक बोध ले आता है। सहज उच्छलन कहना ज्यादा उपयुक्त होगा।

क्या कर्म छोड़ देने से उसके संस्कार खत्म हो जाते हैं। सच तो यह है संस्कार हीं होते हैं जो कर्म में अभिव्यक्त होते हैं। कर्म छोड़ या स्थगित कर देने पर भी वो हमें ड्राईव करते हैं। अगर रंगों को छोड़ कर वह संन्यासिन बहन बनी तो भी वह एक रंग को हीं रच रही थी। यह सही था कि यह उसकी पहली पसंद नहीं थी। लेकिन पिता के बचपन में और माँ के उसके बीस वर्ष के अवस्था में निधन ने उसके लिए सोचने पर मजबूर कर दिया। सिर्फ संपत्ति में लड़की का हक मिल पाना हीं काफी होना नहीं होता। आदमी संपत्ति से नहीं जिंदा रहता है। वह रिश्ते और आपसी विश्वास से जिंदा रहता है। जो स्त्री सृजन को जन्म दे सकती है उसके लिए संपत्ति से सृजन का होना मानना दृष्टि का हीं नीचा होना है। जिसने सृष्टि किया है वह संपत्ति की भी सृष्टि कर सकती है। आपसी विश्वास का टूटना गहरे वैराग्य को जन्म देता है जो सहज प्रलोभनों से नहीं डिगता।

लेकिन सहज प्रेम से वैराग्य कंपायमान जरूर हो जाता है। सहज प्रेम से वैराग्य के तारों में संगीत का फूट जाना हीं वैराग्य की सार्थकता है। वैराग्य हीं हमें प्रेम को पकड़ पाने की शक्ति देता है। मोहन के प्रेम का बालसुलभ रूप जब तुलिका के जीवन में आया तो वह मोह और सिद्धि के प्रश्न के झूले में तरंगित हो गई। जिस तरह वह अपने भावना के सहज रूप में आता था यह सब पर स्पष्ट हो गया कि उसके दामन में तुलिका के रंग आ गये हैं। एक्सीडेन्ट होना था, हो गया। तुलिका को देखकर जिस तरह वह अपने दोनों हाथों को उठा कर हिलाया तो उसकी मोटरसाइकिल गिर पड़ी और वह अपने हाथ तुड़वा बैठा।

जब काफी दिन बाद वह आया तो भी वह अपने पुराने रंगत में हीं था। वह तुलिका से फोन पर बातें करने लगा। तुलिका के सामने एक प्रश्न खड़ा हो चुका था। वह एक मैरिज काउंसलर के पास थी। तुलिका मांगलिक थी और मोहन मांगलिक नहीं था। उसके दायें हाथ में जीवन रेखा एक अन्य रेखा से कट कर रूकी हुई थी। इसका मतलब था तुलिका को उससे शादी करने पर उसका कम साथ मिलना था। जीवन में फिर एक बार वह अपने लिए रंग चुनने को खड़ी थी। उसने चुन लिया था। त्याग वासना का किया जाता है। उसका नहीं जिसे देख कर और ईश्वर के होनें पर यकीन हो आता हो। लोग प्यार को शादी से मिलना और ना मिलना क्यूँ जोड़ लेते हैं। बिछड़ना तो शादी के बाद एक न एक दिन और हीं स्पष्ट रूप से होता है। बिना वैराग्य के कोई कैसे अंतिम रूप से मिल सकता है।

उसके पति का शव संस्कार करने को पड़ा था। रोड हादसे में वह सदा के लिए जा चुका था। उसने अपने आँसू भरे चेहरे को धो लिया था। वह अब अगरबत्ती को जला रही थी।

 

  सौरभ कुमार का साहित्य  

 

 

 

top