भक्त-वत्सलता
प्रभु कौ देखौ एक सुभाइ |
अति-गंभीर-उदार-उदधि हरि, जान-सिरोमनि राइ |
तिनका सौं अपने जनकौ गुन मानत मेरु-समान |
सकुचि गनत अपराध-समुद्रहिं बूँद-तुल्य भगवान |
बदन-प्रसन्न कमल सनमुख ह्वै देखत हौं हरि जैसें |
बिमुख भए अकृपा न निमिषहूँ, फिरि चितयौं तौ तैसें |
भक्त-बिरह-कातर करुनामय, डोलत पाछैं लागे |
सूरदास ऐसे स्वामौ कौं देहिं पीठि सो अभागे ||4||
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See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217