परिशिष्ट (क) रामचरित
आजु अति कोपे हैं रन राम |
ब्रह्मादिक आरूढ़ विमाननि, देखत हैं संग्राम |
घन तन दिव्य कवच सजि करि, अरु कर धार्यौ सारंग |
सुचि करि सकल बान सूधै करि, कटि -तट कस्यौ निषंग |
सुरपुर तैं आयौ रथ सजि कै, रघुपति भए सवार |
काँपी भूमि कहा अब ह्वै है, सुमिरत नाम मुरारि |
छोभित सिंधु, सेष-सिर कंपित. पवन भयौ गति पंग |
इंद्र हँस्यौ, हर हिय बिलखान्यौ, जानि बचन कौ भंग |
धर-अंबर, दिसि-बिदिसि, बढ़े अति सायक किरन-समान |
मानौ महा-प्रलय के कारन, उदित उभय षट भान |
टूटत धुजा-पातक-छत्र रथ, चाप-चक्र-सिरत्रान |
जूझत सुभट जरत ज्यौं दव द्रुम, बिनु साखा बिनु पान |
स्रोनित छिंछ उछरि आकासहिं, गज-बाजिनि -सिर लागि |
मानौ निकरि तरनि रंध्रहिं तैं, उपजी है अति आगि |
परि कबंध भहराइ रथनि तैं, उठत मनौ झर जागि |
फिरत सृगाल सज्यौ सब काटत, चलत सो सिर लै भागि |
रघुपति रिस पावक प्रचंड अति, सीता स्वास समीर |
रावन कुल अरु कुंभकरन बन, सकल सुभट रनधीर |
भए भस्म कछु बार न लागी, ज्यौं ज्वाला पट चीर |
सूरदास प्रभु आपु बाहुबल, कियौ निमिष मैं कीर ||15||
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