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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

अयोध्याकाण्ड

अयोध्याकाण्ड पेज 78

धन्य भरत जय राम गोसाईं। कहत देव हरषत बरिआई।
मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू। भरत बचन सुनि भयउ उछाहू।।
भरत राम गुन ग्राम सनेहू। पुलकि प्रसंसत राउ बिदेहू।।
सेवक स्वामि सुभाउ सुहावन। नेमु पेमु अति पावन पावन।।
मति अनुसार सराहन लागे। सचिव सभासद सब अनुरागे।।
सुनि सुनि राम भरत संबादू। दुहु समाज हियँ हरषु बिषादू।।
राम मातु दुखु सुखु सम जानी। कहि गुन राम प्रबोधीं रानी।।
एक कहहिं रघुबीर बड़ाई। एक सराहत भरत भलाई।।

दो0-अत्रि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सुकूप।
राखिअ तीरथ तोय तहँ पावन अमिअ अनूप।।309।।


भरत अत्रि अनुसासन पाई। जल भाजन सब दिए चलाई।।
सानुज आपु अत्रि मुनि साधू। सहित गए जहँ कूप अगाधू।।
पावन पाथ पुन्यथल राखा। प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा।।
तात अनादि सिद्ध थल एहू। लोपेउ काल बिदित नहिं केहू।।
तब सेवकन्ह सरस थलु देखा। किन्ह सुजल हित कूप बिसेषा।।
बिधि बस भयउ बिस्व उपकारू। सुगम अगम अति धरम बिचारू।।
भरतकूप अब कहिहहिं लोगा। अति पावन तीरथ जल जोगा।।
प्रेम सनेम निमज्जत प्रानी। होइहहिं बिमल करम मन बानी।।

दो0-कहत कूप महिमा सकल गए जहाँ रघुराउ।
अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ।।310।।


कहत धरम इतिहास सप्रीती। भयउ भोरु निसि सो सुख बीती।।
नित्य निबाहि भरत दोउ भाई। राम अत्रि गुर आयसु पाई।।
सहित समाज साज सब सादें। चले राम बन अटन पयादें।।
कोमल चरन चलत बिनु पनहीं। भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं।।
कुस कंटक काँकरीं कुराईं। कटुक कठोर कुबस्तु दुराईं।।
महि मंजुल मृदु मारग कीन्हे। बहत समीर त्रिबिध सुख लीन्हे।।
सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं। बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं।।
मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी। सेवहिं सकल राम प्रिय जानी।।

दो0-सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात।
राम प्रान प्रिय भरत कहुँ यह न होइ बड़ि बात।।311।।

एहि बिधि भरतु फिरत बन माहीं। नेमु प्रेमु लखि मुनि सकुचाहीं।।
पुन्य जलाश्रय भूमि बिभागा। खग मृग तरु तृन गिरि बन बागा।।
चारु बिचित्र पबित्र बिसेषी। बूझत भरतु दिब्य सब देखी।।
सुनि मन मुदित कहत रिषिराऊ। हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ।।
कतहुँ निमज्जन कतहुँ प्रनामा। कतहुँ बिलोकत मन अभिरामा।।
कतहुँ बैठि मुनि आयसु पाई। सुमिरत सीय सहित दोउ भाई।।
देखि सुभाउ सनेहु सुसेवा। देहिं असीस मुदित बनदेवा।।
फिरहिं गएँ दिनु पहर अढ़ाई। प्रभु पद कमल बिलोकहिं आई।।

दो0-देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच दिन माझ।
कहत सुनत हरि हर सुजसु गयउ दिवसु भइ साँझ।।312।।

 

 

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