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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

बालकाण्ड

बालकाण्ड पेज 59

मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयऊ लै बिप्र समाजा।।
करि दंडवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी।।
चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा।।
बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा।।
पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी।।
भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा।।
तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ।।
केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा।।
असुर समूह सतावहिं मोही। मै जाचन आयउँ नृप तोही।।
अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा।।

दो0-देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान।।207।।


सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी।।
चौथेंपन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी।।
मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा।।
देह प्रान तें प्रिय कछु नाही। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माही।।
सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाई।।
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुंदर सुत परम किसोरा।।
सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी।।
तब बसिष्ट बहु निधि समुझावा। नृप संदेह नास कहँ पावा।।
अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए।।
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ।।

दो0-सौंपे भूप रिषिहि सुत बहु बिधि देइ असीस।
जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस।।208(क)।।
सो0-पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।।
कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन।।208(ख)


अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला।।
कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा।।
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। बिस्बामित्र महानिधि पाई।।
प्रभु ब्रह्मन्यदेव मै जाना। मोहि निति पिता तजेहु भगवाना।।
चले जात मुनि दीन्हि दिखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई।।
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।।
तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही।।
जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा।।

दो0-आयुष सब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।
कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि।।209।।


प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई।।
होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी।।
सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही।।
बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा।।
पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा।।
मारि असुर द्विज निर्मयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी।।
तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया।।
भगति हेतु बहु कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना।।
तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई।।
धनुषजग्य मुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा।।
आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं।।
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी।।

दो0-गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर।।210।।

छं0-परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तपपुंज सही।
देखत रघुनायक जन सुख दायक सनमुख होइ कर जोरि रही।।
अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही।।
धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।
अति निर्मल बानीं अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई।।
मै नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई।।
मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
देखेउँ भरि लोचन हरि भवमोचन इहइ लाभ संकर जाना।।
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना।।
जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी।।
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पतिलोक अनंद भरी।।

दो0-अस प्रभु दीनबंधु हरि कारन रहित दयाल।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाड़ि कपट जंजाल।।211।।

मासपारायण, सातवाँ विश्राम

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