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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

लंकाकाण्ड

लंकाकाण्ड पेज 19

कर सारंग साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा।।
प्रथम कीन्ह प्रभु धनुष टँकोरा। रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा।।
सत्यसंध छाँड़े सर लच्छा। कालसर्प जनु चले सपच्छा।।
जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा। लगे कटन भट बिकट पिसाचा।।
कटहिं चरन उर सिर भुजदंडा। बहुतक बीर होहिं सत खंडा।।
घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं। उठि संभारि सुभट पुनि लरहीं।।
लागत बान जलद जिमि गाजहीं। बहुतक देखी कठिन सर भाजहिं।।
रुंड प्रचंड मुंड बिनु धावहिं। धरु धरु मारू मारु धुनि गावहिं।।

दो0-छन महुँ प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच।
पुनि रघुबीर निषंग महुँ प्रबिसे सब नाराच।।68।।


कुंभकरन मन दीख बिचारी। हति धन माझ निसाचर धारी।।
भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा। कियो मृगनायक नाद गँभीरा।।
कोपि महीधर लेइ उपारी। डारइ जहँ मर्कट भट भारी।।
आवत देखि सैल प्रभू भारे। सरन्हि काटि रज सम करि डारे।।।
पुनि धनु तानि कोपि रघुनायक। छाँड़े अति कराल बहु सायक।।
तनु महुँ प्रबिसि निसरि सर जाहीं। जिमि दामिनि घन माझ समाहीं।।
सोनित स्त्रवत सोह तन कारे। जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे।।
बिकल बिलोकि भालु कपि धाए। बिहँसा जबहिं निकट कपि आए।।

दो0-महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस।
महि पटकइ गजराज इव सपथ करइ दससीस।।69।।


भागे भालु बलीमुख जूथा। बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा।।
चले भागि कपि भालु भवानी। बिकल पुकारत आरत बानी।।
यह निसिचर दुकाल सम अहई। कपिकुल देस परन अब चहई।।
कृपा बारिधर राम खरारी। पाहि पाहि प्रनतारति हारी।।
सकरुन बचन सुनत भगवाना। चले सुधारि सरासन बाना।।
राम सेन निज पाछैं घाली। चले सकोप महा बलसाली।।
खैंचि धनुष सर सत संधाने। छूटे तीर सरीर समाने।।
लागत सर धावा रिस भरा। कुधर डगमगत डोलति धरा।।
लीन्ह एक तेहिं सैल उपाटी। रघुकुल तिलक भुजा सोइ काटी।।
धावा बाम बाहु गिरि धारी। प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी।।
काटें भुजा सोह खल कैसा। पच्छहीन मंदर गिरि जैसा।।
उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका। ग्रसन चहत मानहुँ त्रेलोका।।

दो0-करि चिक्कार घोर अति धावा बदनु पसारि।
गगन सिद्ध सुर त्रासित हा हा हेति पुकारि।।70।।


सभय देव करुनानिधि जान्यो। श्रवन प्रजंत सरासनु तान्यो।।
बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ। तदपि महाबल भूमि न परेऊ।।
सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा। काल त्रोन सजीव जनु आवा।।
तब प्रभु कोपि तीब्र सर लीन्हा। धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा।।
सो सिर परेउ दसानन आगें। बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें।।
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खंडा।।
परे भूमि जिमि नभ तें भूधर। हेठ दाबि कपि भालु निसाचर।।
तासु तेज प्रभु बदन समाना। सुर मुनि सबहिं अचंभव माना।।
सुर दुंदुभीं बजावहिं हरषहिं। अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं।।
करि बिनती सुर सकल सिधाए। तेही समय देवरिषि आए।।
गगनोपरि हरि गुन गन गाए। रुचिर बीररस प्रभु मन भाए।।
बेगि हतहु खल कहि मुनि गए। राम समर महि सोभत भए।।

छं0-संग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी।
श्रम बिंदु मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी।।
भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने।
कह दास तुलसी कहि न सक छबि सेष जेहि आनन घने।।
दो0-निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम।
गिरिजा ते नर मंदमति जे न भजहिं श्रीराम।।71।।

 

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