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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

लंकाकाण्ड

लंकाकाण्ड पेज 30

काटत बढ़हिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।।
मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा।।
उमा काल मर जाकीं ईछा। सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा।।
सुनु सरबग्य चराचर नायक। प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक।।
नाभिकुंड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकें।।
सुनत बिभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला।।
असुभ होन लागे तब नाना। रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना।।
बोलहि खग जग आरति हेतू। प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू।।
दस दिसि दाह होन अति लागा। भयउ परब बिनु रबि उपरागा।।
मंदोदरि उर कंपति भारी। प्रतिमा स्त्रवहिं नयन मग बारी।।

छं0-प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही।
बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही।।
उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहि जय जए।
सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए।।
दो0-खैचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर एकतीस।
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस।।102।।


सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा।।
लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुंड महि नाचा।।
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा।।
गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी।।
डोली भूमि गिरत दसकंधर। छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर।।
धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई। चापि भालु मर्कट समुदाई।।
मंदोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा।।
प्रबिसे सब निषंग महु जाई। देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई।।
तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि संभु चतुरानन।।
जय जय धुनि पूरी ब्रह्मंडा। जय रघुबीर प्रबल भुजदंडा।।
बरषहि सुमन देव मुनि बृंदा। जय कृपाल जय जयति मुकुंदा।।

छं0-जय कृपा कंद मुकंद द्वंद हरन सरन सुखप्रद प्रभो।
खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो।।
सुर सुमन बरषहिं हरष संकुल बाज दुंदुभि गहगही।
संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही।।
सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं।
जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल समेत उड़ुगन भ्राजहीं।।
भुजदंड सर कोदंड फेरत रुधिर कन तन अति बने।
जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने।।
दो0-कृपादृष्टि करि प्रभु अभय किए सुर बृंद।
भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकंद।।103।।


पति सिर देखत मंदोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी।।
जुबति बृंद रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आई।।
पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुष सँभारा।।
उर ताड़ना करहिं बिधि नाना। रोवत करहिं प्रताप बखाना।।
तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक ससि तरनी।।
सेष कमठ सहि सकहिं न भारा। सो तनु भूमि परेउ भरि छारा।।
बरुन कुबेर सुरेस समीरा। रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा।।
भुजबल जितेहु काल जम साईं। आजु परेहु अनाथ की नाईं।।
जगत बिदित तुम्हारी प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई।।
राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कोउ कुल रोवनिहारा।।
तव बस बिधि प्रपंच सब नाथा। सभय दिसिप नित नावहिं माथा।।
अब तव सिर भुज जंबुक खाहीं। राम बिमुख यह अनुचित नाहीं।।
काल बिबस पति कहा न माना। अग जग नाथु मनुज करि जाना।।

छं0-जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं।
जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं।।
आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं।
तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं।।
दो0-अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन।
जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान।।104।।

 

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