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कोलूशा मैक्सिम गोर्की

कोलूशा मैक्सिम गोर्की

भावानुवाद - आदर्श कुमारी जैन

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"कोलूशा  यह देखता और बहुत परेशान होकर इधर-से-उधर भटकता। एक बार जब मुझे लगा कि यह सब मेरी बर्दाश्त से बाहर है तो मैंने कहा, ‘आग लगे मेरी इस जिंदगी को! मैं मर क्यों नहीं जाती! तुम लोगों में से भी किसी की जान क्यों नहीं निकल जाती?’मेरा इशारा कोलूशा और और उसके पिता की ओर थ।

"उसके पिता ने सिर हिलाकर बस इतना कहा, मैं जल्दी ही चला जाऊंगा। मुझे जली कटी मत कहो। थोड़ा धीरज रक्खो।’

"लेकिन कोलूशा देर तक मेरी ओर ताकता रहा, फिर मुड़ा और घर से बाहर चला गया।

"वह जैसे ही बाहर गया, मुझे अपने शब्दों पर अफसोस होने लगा, पर अब हो क्या सकता था! तीर छूट चुका था।

"एक घंटा भी नहीं बीता होगा कि घोड़े पर सवार एक सिपाही आया। ‘क्या आप गौसपोजा शिशीनीना हैं?’ उसने पूछा। मेरा दिल बैठने लगा। उसने आगे कहा, ‘तुम्हें अस्पताल में बुलाया है। सौदागर ण्नोखिन के घोड़ों ने तुम्हारे बेटे को कुचल डाला है।’

"मैं फौरन गाड़ी में अस्पताल के लिए रवाना हो गई। मुझे लग रहा था, मानो किसी ने गाड़ी की सीट पर जलते कोयले बिछा दिये हैं" मै अपने को कोस रही थी—अरी कम्बख्त, तुने यह क्या कर डाला!’

"आखिर हम अस्पताल पहुंचे। कोलूशा बिस्तर पर पड़ा था। उसके सारे बदन पर पट्टियां बंधी थीं। वह मेरी तरफ देखकर मुस्कराया! उसके गालों पर आंसू बहने लगे! धीमी आवाज में उसने कहा, ‘मां, मुझे माफ करो। पुलिस के आदमी पैसे ले लिये हैं।’

"तुम किन पैसों    की बात कर रहे हो,  कोलूशा?" मैंने पूछा।

"वह बोला, अरे, वे पैसे, जो लोगों ने और एनोखिन ने मुझे दिये थे।’

"मैने पूछा, ‘उन्होंने तुम्हें पैसे क्यों दिये?’

"उसने कहा, ‘इसलिए...’

"उसने धिरे से आह भरी। उसकी आंखें तश्तरी जैसी बड़ी हो रही थीं।

‘कोलूशा!’ मैंने कहा, ‘यह क्या हुआ कि तुमने घोड़े आते हुए नहीं देखे!’

"उसने  साफ आवाज में  हका, ‘मां मैंने घोड़े आते देखे थे, लेकिन मेरे ऊपर से निकल जायंगे तो लोग मुझे जयादा पैसे देंगे, और उन्होंने दिये भी।’

"ये उसके शब्द थे। मैं सबकुछ समझ गई, सबकुछ समझ गई कि उस फरिश्ते लाल ने ऐसा क्यों किया; लेकिन अब तो कुछ भी नहीं किया जा सकता था।

"अगले दिन सबेरे ही वह मर गया। आखिरी सांस लेने तक उसकी चेतना बनी रही और वह बार-बार कहता रहा ‘डैडी के लिए यह खरी लेना, वह खरी लेना और मां अपने लिए भी,’जैसेकि उसके सामने पैसा-ही पैसा हो। वास्तव में सौंतालिस रूबल थे।

"मैं एनोखिन के पास गई; लेकिन मुझे कुल जमा पांच रूबल दिये और वे भी गड़बड़ा कर उसने कहा, ‘लड़के ने अपने को घोड़े के बीच झोंक दिया। बहुत-से लोगों ने देखा। इसलिए तुम किस बात की भीख मांगने आई हो? मैं फिर कभी घर वापस नहीं गई। भैया, यह है सारी दास्तान!’

कब्रिस्तान में खामोशी और सन्नटा छाया था। सलीब, रोगी-जैसे पेड़, मिट्टी के ढेर और कब्र पर इतने दुखी भाव से गुमसुम बैठी वह स्त्री—इस सबसे मैं मृत्यु और इन्सानी दुख के बारे में सोचने लगा।

लेकिन आसमान साफ था और धरती पर ढलती गर्मी की वर्षा कर रहा था।

मैंने अपनी जेब से कुछ सिक्के निकाले और उस स्त्री को ओर बढ़ा दिये, जिसे तकदीर ने मार डाला था, फिर भी वह जिये जा रही थी।

उसने सिर हिलया और बहुत ही रुकते-रुकते कहा, "भाई, तुम अपने को क्यों हैरान करते हो! आज के लिए मेरे पास बहुत हैं। अब मुझे  ज्यादा की जरूरत भी नहीं है। मैं अकेली हूं-दुनिया में बिलकुल अकेली।"

उसने एक लम्बी सांस ली और फिर मुंह पर वेदना से उभरी रेखाओं के बीच अपने पतले होंठ बन्द कर लिये।

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