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उसने मुस्कराते हुए मेरी ओर देखा लेकिन मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना कहने लगा, “शायद बात-बात से तुम सहमत होगे अगर मैं कहू कि साहित्य का उद्देश्य है-खुद अपने को जानने में इंसान की मदद करना, उसके आत्मविश्वास को दृढ़ बनाना और उसके सत्यान्वेषण को सहारा देना, लोगों की अच्छाईयों का उद्-घाटन करना और सौंदर्य की पवित्र भावना से उनके जीवन को शुभ बनाना, क्यों, इतना तो मानते हो ?”
“हाँ,” मैंने कहा, “कमोबेश यह सही है, यह तो सभी मानते है कि साहित्य का उद्देश्य लोगों को और अच्छा बनाना है।”
"तब देखो न, लेखक के रुप में तुम कितने ऊँचे उद्देश्य के लिए काम करते हो ! "मेरे साथी ने गंभीरता के साथ अपनी बात पर जोर देते हुए कहा और फिर अपनी वही तीखी हँसी हँसने लगा, "हो-हो-हो !"
यह मुझे बड़ा अपमानजनक लगा। मैं दुख और खीज से चीख उठा, "आखिर तुम मुझसे क्या चाहते हो ?"
"आओ, थोड़ी देर बाग में चलकर बैठते हैं।" उसने फिर एक हल्की हँसी हँसते हुए और मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खींचते हुए कहा।
उस समय हम नगर-बाग की एक वीथिका में थे । चारों ओर बबूल और लिलक की नंगी टहनियाँ दिखायी दे रही थीं, जिन पर वर्फ की परत चढ़ी हुई थी । वे चांद की रोशनी में चमचमाती मेरे सिर के ऊपर भी छाई हुई थीं औऱ ऐसा मालूम होता था जैसे वर्फ का कवच पहने ये सख्त टहनियाँ मेरे सीने को बेध कर सीधे मेरे हृदय तक पहुंच गयी हों।
मैंने बिना एक शब्द कहे अपने साथी की ओर देखा, उसके व्यवहार ने मूझे चक्कर में डाल दिया था। ’इसके दिमाग का कोई पूर्जा ढीला मालूम होता है।’ मैंने सोचा औऱ इसके व्यवहार की इस व्याख्या से अपने मन को संतोष देने की कोशिश की।
“शायद तुम्हारा खवाल है कि मेरा दिमाग कुछ चल गया है” उसने जैसे मेरे भावों को ताड़ते हुए कहा। “लेकिन ऐसे खयाल को अपने दिमाग से निकाल दो यह तुम्हारे लिए नुकसानदेह और अशोभन है.... बजाय इसके कि हम उस आदमी को समझने की कोशिश करें, जो हमसे भिन्न है। इस बहाने की ओट लेकर हम उसे समझने के झंझट से छुट्टी पा जाना चाहते हैं । मनुष्य के प्रति मनुष्य की दुखद उदासीनता का यह एक बहुत ही पुष्ट प्रमाण है।”
“ओह ठीक है,” मैंने कहा । मेरी खीज बराबर बढ़ती ही जा रही थी, “लेकिन माफ करना, मैं अब चलूँगा, काफी समय हो गया।”
"जाओ अपने कंधों को बिचकाते हुए उसने कहा। “जाओ, लेकिन यह जान लो कि तुम खुद अपने से भाग रहे हो।” उसने मेरा हाथ छोड़ दिया और मैं वहाँ से चल दिया।
वह बाग में ही टीले पर रुक गया। वहा से वोल्गा नज़र आती थी जो अब बर्फ की चादर ताने थी और ऐसा मालूम होता था जैसे बर्फ की उस चादर पर सड़कों के काले फीते टंके हों, सामने दूर तट के निस्तब्ध और उदासी में डूबे विस्तृत मैदान फैले थे। वह वहीं पड़ी हुई एक बैंच पर बैठ गया और सूने मैदानों की ओर ताकता हुआ सीटी की आवाज़ में एक परिचित गीत की धुन गुनगुननाने लगा।
वो क्या दिखायेंगे राह हमको
जिन्हें खुद अपनी ख़बर नहीं
मैंने घुमकर उसकी ओर देखा अपनी कुहनी को घुटने पर और ठोडी की हथेली पर टिकाये, मुँह से सीटी बजाता, वह मेरी ही ओर नज़र जमाये हुए था और चांदनी से चमकते उसने चेहरे पर उसकी नन्हीं काली मूंछें फड़क रही थीं। यह समझकर कि यही विधि का विधान है, मैंने उसके पास लौटने का निश्चय कर लिया। तेज कदमों से मैं वहां पहुँचा और उसके बराबर में वैठ गया।
“देखो, अगर हमें बात करनी है तो सीध-सादे ढंग से करनी चाहिए,” मैने आवेशपूर्वक लेकिन स्वयं को संयत रखते हुए कहा।
“लोगों को हमेशा ही सीधे-सादे ढंग से बात करनी चाहिए।” उसने सिर हिलाते हुए स्वीकार किया, “लेकिन यह तुम्हें भी मानना पड़ेगा कि अपने उस ढंग से काम लिये बिना मैं तुम्हारा ध्यान आकर्षित नहीं कर सकता था। आजकल सीधी-सादी और साफ बातों को नीरस और रूखी कहकर नज़रअंदाज कर दिया जाता है। लेकिन असल बात यह है कि हम खुद ठंडे और कठोर हो गये हैं और इसीलिए हम किसी भी चीज में जोश या कोमलता लाने में असमर्थ रहते हैं । हम तुच्छ कल्पनाओं और दिवास्तप्नों में रमना तथा अपने आपको कुछ विचित्र और अनोखा जताना चाहते हैं, क्योंकि जिस जीवन की हमने रचना की है, वह नीरस, बेरंग और उबाऊ है, जिस जीवन को हम कभी इतनी लगन और आवेश के साथ बदलने चले थे, उसने हमें कुचल और तोड़ डाला है “एक पल चुप रहकर उसने पूछा,” क्यों, मैं ठीक कहता हूं न ?”
“हाँ,” मैंने कहा, “तुम्हारा कहना ठीक है,”
“तुम बड़ी जल्दी घुटने टेक देते हो!” त़ीखी हँसी हँसते हुए मेरे प्रतिवादी न मेरा मखौल उडाया। मैं पस्त हो गया। उसने अपनी पैनी नज़र मुझ-पर जमा दी और मुस्कराता हुआ बोला, “तुम जो लिखते हो उसे हजारों लोग पढ़ते हैं। तुम किस चीज का प्रचार करते हो ? और क्या तुमने कभी अपने से यह पूछा है कि दूसरों को सीख देने का तुम्हें क्या अधिकार है ?”
जीवन में पहली बार मैंने अपनी आत्मा को टटोला, उसे जांचा-परखा। हाँ, तो मैं किस चीज का प्रचार करता हूँ ? लोगों से कहने के लिए मेरे पास क्या है ? क्या वे ही सब चीजें, जिन्हें हमेशा कहा-सुना जाता है, लेकिन जो आदमी को बदल कर बेहतर नहीं बनातीं ? और उन विचारों तथा नीतिवचनों का प्रचार करने का मुझे क्या हक है, जिनमें न तो मैं यकीन करता हूँ और न जिन्हें मैं लाता हूँ ? जब मैंने खुद उनके खिलाफ आचरण किया, तब क्या यह सिद्ध नहीं होता कि उनकी सच्चाई में मेरा विश्वास नहीं है ? इस आदमी को मैं क्या जवाब दूँ जो मेरी बगल में बैठा है ?
Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)
See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217