इस साल इधर एक शक्कर का मिल खुल गया था। उसके कारिंदे और दलाल गाँव-गाँव घूम कर किसानों की खड़ी ऊख मोल ले लेते थे। वही मिल था, जो मिस्टर खन्ना ने खोला था। एक दिन उसका कारिंदा इस गाँव में भी आया। किसानों ने जो उससे भाव-ताव किया, तो मालूम हुआ, गुड़ बनाने में कोई बचत नहीं है। जब घर में ऊख पेर कर भी यही दाम मिलता है, तो पेरने की मेहनत क्यों उठाई जाय? सारा गाँव खड़ी ऊख बेचने को तैयार हो गया। अगर कुछ कम भी मिले, तो परवाह नहीं। तत्काल तो मिलेगा। किसी को बैल लेना था, किसी को बाकी चुकाना था, कोई महाजन से गला छुड़ाना चाहता था। होरी को बैलों की गोई लेनी थी। अबकी ऊख की पैदावार अच्छी न थी, इसलिए यह डर भी था कि माल न पड़ेगा। और जब गुड़ के भाव मिल की चीनी मिलेगी, तो गुड़ लेगा ही कौन? सभी ने बयाने ले लिए। होरी को कम-से-कम सौ रुपए की आशा थी। इतने में एक मामूली गोई आ जायगी, लेकिन महाजनों को क्या करे! दातादीन, मँगरू, दुलारी, झिंगुरीसिंह सभी तो प्राण खा रहे थे। अगर महाजनों को देने लगेगा, तो सौ रुपए सूद-भर को भी न होंगे। कोई ऐसी जुगत न सूझती थी कि ऊख के रुपए हाथ में आ जायँ और किसी को खबर न हो। जब बैल घर आ जाएँगे, तो कोई क्या कर लेगा? गाड़ी लदेगी, तो सारा गाँव देखेगा ही, तौल पर जो रुपए मिलेंगे, वह सबको मालूम हो जाएँगे। संभव है, मँगरू और दातादीन हमारे साथ-साथ रहें। इधर रुपए मिले, उधर उन्होंने गर्दन पकड़ी। शाम को गिरधर ने पूछा- तुम्हारी ऊख कब तक जायगी होरी काका? होरी ने झाँसा दिया - अभी तो कुछ ठीक नहीं है भाई, तुम कब तक ले जाओगे? गिरधर ने भी झाँसा दिया - अभी तो मेरा भी कुछ ठीक नहीं है काका! और लोग भी इसी तरह की उड़नघाइयाँ बताते थे, किसी को किसी पर विश्वास न था। झिंगुरीसिंह के सभी रिनियाँ थे, और सबकी यही इच्छा थी कि झिंगुरीसिंह के हाथ रुपए न पड़ने पाएँ, नहीं वह सब-का-सब हजम कर जायगा। और जब दूसरे दिन असामी फिर रुपए माँगने जायगा तो नया कागज, नया नजराना, नई तहरीर। दूसरे दिन शोभा आ कर बोला - दादा, कोई ऐसा उपाय करो कि झिंगुरीसिंह को हैजा हो जाए। ऐसा गिरे कि फिर न उठे।
|